जैन साहित्य >> जिन अभिषेक विधि जिन अभिषेक विधिक्षुल्लक प्रज्ञांशसागर जी
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जिन अभिषेक विधि
आखिर क्यों?
देवदर्शन की आवश्यकता एवं महत्त्व
जैन धर्म में दर्शन का अर्थ श्रद्धान होता है अथवा श्रद्धा रूपी नेत्रों से वस्तु स्थिति को देखना / निहारना। देव दर्शन से अभिप्राय यही है कि भक्ति-भाव सहित श्रद्धा - आस्था - विश्वास को दर्शाते हुए सच्चे देव अर्थात् अरिहन्त परमेष्ठी की वन्दना करना। जैसी हम वस्तु देखते हैं, वैसे ही हमारे भाव बनते हैं। यदि हम अभद्र / गन्दे चित्र देखते हैं तो हमारे मन में विकार भाव / राग भाव आ जाते हैं। यदि जिनेन्द्र देव के अथवा साधु-सन्तों के दर्शन करते हैं तो हमारे मन में सद्भाव/वैराग्य के भाव या त्याग के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार जिनेन्द्र देव के निर्मल गुणों को मन में जगाने हेतु जिनेन्द्र देव की वीतराग प्रतिमा के दर्शन करने से संसार और शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है, इससे भाव शुद्ध होते हैं, पापों का क्षय होता है और पुण्य का बन्ध होता है।
भगवान् की मूर्ति हमें कुछ देती नहीं है लेकिन मूर्ति के दर्शन करने से आत्मा के परिणामों में शुद्धता आती है। ज्ञानीजन भगवान् को प्रसन्न करने अथवा लौकिक लाभ ( धन, सम्पत्ति, सन्तान आदि) प्राप्ति की भावना से भगवान् की आराधना नहीं करते हैं किन्तु आत्म कल्याण की भावना को मन में संजोकर जिनेन्द्र भगवान् को अवलम्बन स्वरूप से स्वीकार कर अपने भावों को निर्मल कर आराधना करते हैं जिसके फलस्वरूप पुण्य बन्ध होता है और पुण्योदय से सांसारिक भोग सामग्री भी प्राप्त होती है। जैसा कि अन्न उत्पन्न करने के लिए किसान परिश्रम करता है और उसे अन्न (गेहूँ, जौ, चना) आदि के साथ भूसा भी प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार जिनेन्द्र देव की आराधना का मुख्य उद्देश्य आत्म स्वरूप की प्राप्ति करना है, मगर सांसारिक राग भाव घटने से शुभ कर्मों का बन्ध बिन चाहे स्वयमेव हो जाता है और सुख के साधन स्वयमेव मिल जाते हैं पर ज्ञानीजनों की दृष्टि से इस सुख का कोई महत्त्व नहीं है। दर्शन-पूजन का सच्चा लाभ तो मन का निर्मल हो जाना और विषय कषायों से बचना है। अतः प्रतिमा के दर्शन करते समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि मैं भी जिनेन्द्र देव की तरह आत्म शान्ति प्राप्त करूँ तथा राग, द्वेष, मोह आदि विकारी भावों को त्याग कर अपनी आत्मा को शुद्ध करूँ। 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् मैं जिनेन्द्रदेव के गुणों की प्राप्ति के लिए उनकी वन्दना करता हूँ।
जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करना रूढ़िवादिता नहीं है। इसमें स्वहित का कारण छुपा हुआ है। वीतराग मूर्ति के दर्शन करने से अपने जिन शुद्ध स्वरूप का दर्शन व अनुभव होता है। जो गुण परमात्मा के हैं, वे ही गुण मेरे में भी हैं, अन्तर यही है कि उन्होंने अपने वीतरागता के गुणों को प्रकट कर लिया है और हम सरागी होने के कारण अपनी आत्मा के वास्तविक गुणों को प्रकट ही नहीं कर पाए हैं। जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन यही स्मरण दिलाते हैं कि हम भी सर्व गुणों को प्राप्त कर सकते हैं, हममें भी अनन्त शक्तियों का वास है। प्राणीमात्र की अन्तरात्मा में भगवान् बनने की क्षमता है, परन्तु उसे अज्ञानता वश हम भूल गए हैं? यदि हम भी भगवान् बनने का सम्यक् / अच्छी तरह पुरुषार्थ करें तो स्वयं एक दिन भगवान् बन सकते हैं। लेकिन इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। जिस प्रकार कोई चित्रकार किसी कठिन, गहन व गम्भीर चित्र को एकदम नहीं बना सकता है और अभ्यास करके ही उसे बनाने में समर्थ होता है, उसी प्रकार संसारी जीव भी परमात्म स्वरूप का ध्यान एकदम नहीं कर सकता है, वह जिनबिम्ब के नित्यप्रति दर्शन करने से, मूर्ति की वीतराग छवि से तारतम्यता स्थापित करने से एवं ध्यान के निरन्तर अभ्यास आदि के माध्यम से परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है अन्यथा नहीं।
जिन प्रतिमा हमारी भावनाओं को शुद्ध करने का बाह्य साधन है। जिनेन्द्र देव किसी के पाप को नष्ट नहीं करते हैं क्योंकि वे वीतरागी हैं, उन्हें किसी से राग नहीं होता है किन्तु उनके प्रति भक्ति के जो निर्मल भाव होते हैं, वे पाप विनाशक होते हैं। जिनेन्द्र देव के दर्शन व गुण चिन्तवन करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं और उसे पुण्य व आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। दर्शन पाठ में भी यही भाव दर्शाया गया है-
दर्शनं देव-देवस्य दर्शनं पाप - नाशनम्।
दर्शनं स्वर्ग-सोपानं दर्शनं मोक्ष - साधनम् ॥
दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र - हस्ते यथोदकम्।।
अर्थात् - देवों के देव जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन पाप नाश करने वाला है, स्वर्ग की सीढ़ी है और मोक्ष का साधन है।। जिस प्रकार अञ्जुलि (चुल्लु ) में जल नहीं ठहरता है, उसी प्रकार जिनेन्द्र देव तथा साधुओं के दर्शन करने से अधिक समय तक पाप नहीं ठहर सकता अर्थात् पाप धीरे-धीरे दूर हो जाता है।
आचार्य श्री पद्मनन्दि जी कहते हैं कि जो जिनेन्द्र देव के दर्शन-पूजन, स्तुति नहीं करते, उनका जीवन निष्फल है और उनके जीवन को धिक्कार है-
"ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति, पूजयन्ति स्तुवन्ति च।
निष्फलं जीवनं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥”
अर्थात् - जो जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन नहीं करता और न ही पूजन, स्तवन करता है उसका जीवन निष्फल है और ऐसे गृहस्थ आश्रम (जीवन) को धिक्कार है।
अतः मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने हेतु सभी गृहस्थों का यह आवश्यक कार्य है कि वे प्रतिदिन जिनेन्द्र देव के दर्शन-पूजन अवश्य करें।
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