जैन साहित्य >> जिन अभिषेक विधि जिन अभिषेक विधिक्षुल्लक प्रज्ञांशसागर जी
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जिन अभिषेक विधि
संक्षिप्त दर्शन विधि
मन्दिर जी में प्रवेश - प्रात: स्नान आदि से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र पहन कर अक्षत (चावल), अष्ट द्रव्य आदि लेकर, पवित्र भावनाओं को मन में संजोकर, आनन्दित होते हुए, बड़े ही हर्ष के साथ मन्दिर जी जावें। मन्दिर जी में हाथ-पैर धोकर ही प्रवेश करें। मन्दिर जी में प्रवेश करते हुए मन्दिर जी की दहलीज को नमस्कार या प्रवेशद्वार की चरण वन्दना नहीं करनी चाहिए | सम्पूर्ण मन्दिर जी को नमस्कार करना नवदेवताओं में से एक जिन चैत्यालय को नमस्कार करना है पर अकेली दहलीज / चौखट को नमस्कार करना, अर्थ रहित और अनुचित है। मन्दिर जी के वेदिका गृह में शुद्ध वस्त्रों के साथ विनय पूर्वक प्रवेश करें। प्रवेश करते ही “ॐ जय जय जय" बोलें। इसके उच्चारण का अभिप्राय जिन मन्दिर जी के प्रति उच्च आदर भाव प्रकट करना है। पश्चात् "निःसहि, निःसहि, निःसहि" का उच्चारण करें। “निःसहि" का अर्थ है- “मैं अपने अन्दर के विकारों और विभावों का त्याग करता हूँ” अर्थात् सांसारिक कार्यों की उलझनों को त्याग कर मन्दिर जी में प्रवेश करता हूँ ताकि हमारे मन में खोटे भाव आने से रुक सकें और शुद्ध व शान्त भाव से जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन कर सकें। प्राचीन मान्यता के अनुसार “नि: सहि" शब्द सुनकर पूजा- भक्ति में मग्न अदृश्य देवतागण भी व्यवस्थित हो जाते हैं और दर्शनार्थी को दर्शन-पूजन हेतु स्थान- बहुमान देते हैं।
घण्टा बजाना - मन्दिर जी में प्रवेश करते ही घण्टा बजाना चाहिए। घण्टा बजाना मंगल नाद का सूचक है। जब घर से मन्दिर जी को चलते हैं तो अनेक चिन्ताएँ मन-मस्तिष्क में घूमती रहती हैं। घण्टा बजाने से यह विचार श्रृंखला भंग होती है और हमारा ध्यान वीतरागता की ओर लगता है। घण्टे के ठीक नीचे खड़े होकर घण्टे को बजाना चाहिए जिससे घण्टा बजाने पर जो उसकी तरंगे (Vibrations) निकले, उन्हें हम ग्रहण (Observe) कर सकें। साथ ही घण्टे की आवाज़ सुनकर वहाँ पर जो भी ( दृश्य अथवा अदृश्य) महानुभाव दर्शन कर रहे हैं, उन्हें यह ज्ञान हो जाता है कि दर्शन करने अन्य कोई व्यक्ति आया है, अतः उसे भी भक्ति करने हेतु स्थान दिया जावे | घण्टा बजाने में एक अन्य भावना भी निहित है। जिस प्रकार वाद्य यन्त्र, घण्टा नाद आदि खुशी और मांगलिक अवसरों के द्योतक हैं, उसी प्रकार घण्टा बजाकर दर्शनार्थी अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करता है कि हे भगवान्! आपके दर्शन करके मैं धन्य हुआ, आपके दर्शन से मेरे मन में अति आनन्द हो रहा है आदि-आदि।
रात्रि में घण्टा नहीं बजाना चाहिए क्योंकि कुछ सूक्ष्म जीव सूर्यास्त होने पर अपने को सुरक्षित समझकर बिल आदि से निकलकर यहाँ-वहाँ विचरण करते हैं और उनके स्वच्छन्द विचरण करते हुए घण्टा नाद हो जाए तो उसकी आवाज़ अथवा तीव्र तरंगों से सूक्ष्म जीवों को कष्ट- पीड़ा-भय अथवा प्राण हानि तक हो सकती है अत: सूर्यास्त के पश्चात् हमें घण्टा नाद नहीं करना चाहिए।
वेदी के समक्ष खड़े होना - जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के समक्ष ( एक तरफ़ ) हाथ जोड़कर विनयपूर्वक खड़े होना चाहिए तत्पश्चात् “ ॐ जय जय जय, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु” बोलना चाहिए। " नमोस्तु” विनयपूर्वक नमस्कार को कहते हैं। इसका भावार्थ है- 'हे जिनेन्द्र देव ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो, श्रीजी के चरणारविन्द को मेरा मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार हो। ' तत्पश्चात् णमोकार मन्त्र, माहात्म्य और चत्तारि दण्डक आदि बोलें और धुले हुए अक्षत या अष्ट द्रव्य चढ़ावें। (यहाँ आपकी सुविधा के लिए शुद्ध णमोकार महामन्त्र दिया है | )
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं।।
एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं होई मंगलं ॥
चत्तारि मंगलं - अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा - अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि - अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
ह्रौं शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा। अनादि सिद्धमन्त्रः।
अक्षत (अष्ट द्रव्य) चढ़ाना - लोक व्यवहार में जब हम गुरु, राजा, ज्योतिषी, वैद्य तथा अन्य परिचितों के यहाँ जाते हैं तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट स्वरूप कुछ सामग्री ले जाते हैं। तीन लोक के नाथ के सम्मुख ख़ाली हाथ खड़े होना दरिद्रता का प्रतीक है। तिर्यञ्च गति का जीव "मेंढक " राजगृही में भगवान् के समवशरण में जा रहा था तो अपने मुख में कमल की पंखुड़ी ले जा रहा था। जब साधन विहीन तिर्यञ्च गति का जीव व सामान्य जन भी लोक व्यवहार में अपने पूज्य से मिलने ख़ाली हाथ नहीं जाते हैं तो क्या हम साधन-सम्पन्न लोगों को तीन लोकों के स्वामी के समक्ष ख़ाली हाथ जाना चाहिए? अतः दर्शन के लिए जाते समय चावल, लौंग, बादाम, अखरोट, काजू, पिस्ता, किशमिश आदि उत्तमोत्तम प्रासुक सामग्री लेकर जाना चाहिए।
जिनेन्द्र भगवान् के समक्ष बिना धुली हुई द्रव्य ( सामग्री) समर्पित नहीं की जाती क्योंकि जिस वस्तु को हम खा नहीं सकते, उसे समर्पित कैसे कर सकते हैं? अथवा जिनेन्द्र देव को सामग्री समर्पित करने से पूर्व प्रासुक जल से धो लें, उसके पश्चात् समर्पित करें।
णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए जिनेन्द्र देव के सामने 5 पुञ्ज (अक्षत / अर्घ्य के ) चढ़ाने चाहिए। यह पाँच पुञ्ज पाँच परमेष्ठी (1. अरिहन्त परमेष्ठी, 2. सिद्ध परमेष्ठी, 3. आचार्य परमेष्ठी, 4. उपाध्याय परमेष्ठी, 5. साधु परमेष्ठी) को नमस्कार करने की भावना का प्रतीक है। चावल चढ़ाने के पीछे भावना यही रहती है कि जिस प्रकार चावल के ऊपर का छिलका हट जाने के कारण चावल दोबारा उगने योग्य नहीं रहता है, उसी प्रकार जिनेन्द्र देव के दर्शन करने के पश्चात् मेरी आत्मा भी पुनः जन्म लेने योग्य नहीं रहे अर्थात् घातिया एवं अघातिया कर्मों को नष्ट कर मोक्ष पद प्राप्त करे।
शास्त्र के समक्ष चार पुञ्ज चार अनुयोगों (1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग, 4. द्रव्यानुयोग ) के प्रतीक स्वरुप और गुरु के समक्ष तीन पुञ्ज (1. सम्यग्दर्शन, 2. सम्यग्ज्ञान, 3. सम्यक्चारित्र) के प्रतीक स्वरूप चढ़ाने चाहिए। द्रव्य चढ़ाने से हमारे भाव विशुद्ध बनते हैं तथा हमारे लोभ आदि कषायों का शमन / त्याग होता है। वह हमारे लाभान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम में कारण अवश्य बनता है, जिससे हमें चाही - अनचाही वस्तुओं की प्राप्ति भी अनायास होती है। साथ ही मन्दिर जी में अपनी शक्ति के अनुसार दान पात्र में गुप्त दान जरूर डालें, जिससे मन्दिर जी की व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके और इसका श्रेय / पुण्य आपको भी प्राप्त हो सके। तत्पश्चात् 24 तीर्थंकरों व विदेह क्षेत्र में विराजमान 20 तीर्थंकरों के नामों का स्मरण करते हुए उनकी जय-जयकार करें और धोक लगावें।
धोक देना – जिनेन्द्र देव के प्रति समर्पण भाव रखते हुए विनयपूर्वक धोक लगानी चाहिए (घुटने टेककर अथवा गवासन लगाकर नमस्कार करना)। प्राय: “पञ्चांग धोक" लगानी चाहिए। पञ्चांग नमस्कार में घुटने, हाथ जोड़ते हुए कोहनी एवं मस्तक जमीन पर स्पर्श होने चाहिए। इस प्रकार दो हाथ, दो पैर व सिर कुल पाँच अंगों के द्वारा नमस्कार करने को पञ्चांग नमस्कार कहते हैं। 'अष्टांग नमस्कार' में जमीन पर लेटकर हाथ लम्बे फैलाते हुए धोक लगाते हैं। इसमें दो हाथ, दो पैर, सिर, नासिका, उदर तथा छाती कुल आठ अंगों से नमस्कार किया जाता है। महिलाओं को “गवासन" से धोक देनी चाहिए अर्थात् जिस प्रकार गाय बैठती है उसी के अनुरूप बैठकर दोनों पैरों को दाहिनी ओर करके, दोनों हाथ व सिर जमीन पर टेककर धोक देनी चाहिए।
प्रदक्षिणा - धोक देने के पश्चात् खड़े होकर अपनी बाईं ओर से वेदिका जी की परिक्रमा लगाना प्रारम्भ करें, साथ ही हाथ जोड़ें और विनती / स्तोत्र आदि बोलते हुए शान्त व एकाग्र चित्त से नीचे देखकर चलते हुए धीरे-धीरे तीन परिक्रमा लगानी चाहिए। परिक्रमा देने का कारण यह है कि मन्दिर जी में जो वेदिका जी है वह समवसरण के बीच स्थित 'गन्धकुटी' के तुल्य / स्वरूप है। गन्धकुटी में भगवान जी पूर्व दिशा में विराजमान होते है फिर भी भगवान् का मुख अतिशय के कारण चारों दिशाओं में दिखाई देता है। दर्शनार्थी चारों तरफ़ से दर्शन करने के लिए गन्धकुटी में विराजित भगवान् की परिक्रमा लगाते हैं। इसी के अनुकरण स्वरूप वेदिका की परिक्रमा की जाती है।
तीन परिक्रमा देने का आशय निम्न है-
जन्म, जरा, मृत्यु नष्ट करने की भावना भाना।
• सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र प्राप्ति की कामना करना। मन-वचन-काय तीन योगों से भक्ति प्रकट करना।
• तीनों लोकों (अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक) के कृत्रिम - अकृत्रिम सभी चैत्यालयों की वन्दना करना।
प्रदक्षिणा देते समय भगवान् के गुणों का चिन्तवन करना चाहिए और मन में यह भावना भानी चाहिए कि जैसी शान्ति एवं वीतरागता भगवान् की मूर्ति में है वैसी ही मेरे मन में भी प्रकट हो।
प्रदक्षिणा पूरी करने के पश्चात् आवर्त और शिरोनति करें।
आवर्त और शिरोनति - परिक्रमा पूर्ण कर वेदिका जी के समक्ष खड़े होकर शेष स्तुति पूरी करें। तत्पश्चात् तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। दोनों हाथों को जोड़कर गोलाकार बाईं ओर से दाहिनी तरफ़ घुमाने की क्रिया को 'आवर्त' कहते हैं और दोनों हाथों के ऊपर सिर रखकर झुकाने को 'शिरोनति' कहते हैं। आवर्त से आशय तीनों लोकों में विराजमान सभी प्रतिमाओं को नमस्कार करना है और शिरोनति से आशय उन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप, मन-वचन-काय से नमस्कार करना है। तीन आवर्त और एक शिरोनति करने के पश्चात् पुनः पञ्चांग या अष्टांग धोक दें।
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