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बन्जारा

डॉ. मुकेश कुमार सिंह

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16999
आईएसबीएन :9781613017838

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बन्जारा समाज के जीवन पर अप्रतिम पुस्तक

बन्जारा समाज की मशाल जलाती काव्यकृति : 'बन्जारा’

जिसकी लहर-लहर पर सिमटी, त्याग समर्पण की धारा
जिसके तीर-तीर पर गुंजित, परमवीरता का नारा
गहरे जितना भी जाओगे, उतना पाओगे मोती
एक कल्पना का सागर है, मेरी पुस्तक बन्जारा

उपरोक्त पंक्तियाँ डा. मुकेश कुमार सिंह की काव्यकृति ’बन्जारा’ से उद्धृत की गयी हैं इन पंक्तियों द्वारा कवि ने काव्य प्रेमियों को अपनी कृति से संबंधित विशेषताओं से परिचित कराने का प्रयास किया है। जैसा कि आपने अपने वक्तव्य में काव्यकृति में प्रयुक्त छन्द के विषय में कहा है कि उक्त कृति तांटक छन्द में लिखी गयी है, इस छन्द में चार पद होते हैं। प्रत्येक पद में 16, 14 की यति पर तीस-तीस मात्रायें होती हैं। हर पदांत में तीन गुरु मात्राओं की अनिवार्यता होती है। कवि को छन्द में इन्हीं सब बंदिशों का निर्वाह करते हुये काव्य की संरचना करनी होती है। तांटक छन्द के उदाहरण के रूप में डा. हरिवंश राय ’बच्चन’ की प्रसिद्ध कृति ’मधुशाला’ का उल्लेख किया जा सकता है यह बीसवीं सदी की शुरुआत की हिन्दी साहित्य की अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें सूफ़ीवाद का दर्शन समाया हुआ है। आज के बदले हुए साहित्यिक परिदृश्य में जबकि पाठकीय पठनीयता अत्यन्त शोचनीय स्तर पर चल रही है। 'मधुशाला' काव्य प्रेमियों द्वारा बराबर क्रय की जाती रही है। इसी क्रम में यदि डा. मुकेश कुमार सिंह की महत्वाकाँक्षी कृति ’बन्जारा' का मूल्यांकन किया जाये तो ये कृति भी हर दृष्टि से ’मधुशाला’ के समकक्ष दृष्टिगत होगी। इस कृति में वो सभी विशेषतायें देखने मे आ जाएँगी, जो मधुशाला में मौजूद हैं। यद्यपि इस कृति के रचनाकार डा. मुकेश सिंह ने सृजन के केन्द्र में ’बन्जारे’ के जीवन दर्शन को रखकर इस काव्य को रचा है परन्तु बन्जारे का जीवन भी किसी सूफ़ी से कम नहीं होता। अपने आप में बन्जारा समाज, एक ऐसा समाज है जो 'रमता जोगी बहता पानी' की लय पर अपना जीवन निर्वाह करता दिखलायी पड़ता है। प्राचीन काल से ये खुले आकाश में बिना छत के अपना जीवन निर्वाह करता आया है। यहाँ बन्जारे की अस्थायी जीवन शैली को चित्रित करती इस काव्य कृति की इन पंक्तियों का अवलोकन कीजिये -

इसकी अपनी जीवन शैली, इसका अपना पतियारा
ना तो महल जुटाये इसने, ना भवनों का सुख सारा
आज बिछौना यहाँ, कहाँ कल, इसको पता नहीं होता
नित्य सवेरे नई दिशा में, चल देता है बन्जारा

विचार कीजिये आज जबकि समाज जमीन के एक-एक टुकडे़ के लिये एक दूसरे के प्राण तक ले लेने में नहीं हिचकता, बन्जारा समाज प्रारम्भ से ही एक संत या सूफ़ी के समान धरती या जमीन की लिप्सा से मुक्त है। वो उपनिषद के कथनानुसार - चरैवेति-चरैवेति अर्थात् चलते रहो-चलते रहो... की अवधारणा को आत्मसात करके तथा हताशा या निराशा को परे धकेल कर अपने जीवन पथ पर चलता रहता है। उस पर यह मुक्तक एकदम सटीक बैठता है -

हर दिन नये कुँए का पानी, कोई और नहीं चारा
सौ सौ कोस नाप दी सड़कें, फिर भी तनिक नहीं हारा।
कभी बिछौना बना रेत का, और हाथ की तकिया ली
मस्ती में है खोया रहता, अपनी धुन का बन्जारा।

बन्जारे सनातन धर्म के अनुयायी हैं। ये हिन्दुओं के सभी देवी देवताओं की आराधना करते हैं। छत्तीसगढ़ के बन्जारे 'बन्जारा देवी' की पूजा अर्चना करते हैं। कवि अपनी कृति में इस सम्बन्ध में कहता है -

चौदह सौ ईस्वी के लगभग, जंगल यहाँ रहा सारा
माँ ने तब दर्शन दे करके, मंदिर बनवाया प्यारा
मनचाहा वरदान मिलेगा, तब बन्जारी माता का
शहर रायपुर जब आओगे, बन करके इक बन्जारा

वर्तमान काल में बन्जारा समुदाय महाराष्ट्र, राजस्थान, मारवाड़ क्षेत्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पाया जाता है। बन्जारा को आंग्ल भाषा में जिप्सी कहते हैं। विदेशियों का यह मानना है कि जिप्सी एक स्थान पर रहने के बजाय झुंड में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आया-जाया करते हैं। बन्जारों की भाषा राजस्थानी जैसी प्राचीन आर्य भाषा समूह की एक स्वतंत्र बोली है जो पहले पूरे भारत के बन्जारों द्वारा बोली जाती थी, इसे बन्जारा भाषा कहते हैं। बन्जारों के गौर समुदाय का उद्गम स्थल शूरवीरों की धरती राजस्थान को माना गया है। सम्भवतः इसीलिये इनकी भाषा मारवाड़ी से मिलती-जुलती है। गौर बन्जारा समुदाय से जुड़ी होने के कारण यह गौर माटी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। इसे दक्षिण पश्चिम भारत में लंबाड़ी और महाराष्ट्र में गौरमाटी भी कहते हैं। कवि अपनी कृति में बन्जारों की भाषा के सम्बन्ध में कहता है -

कर्कश शब्दों की ये माला, ऊपर कर दे जो पारा
वाचिक परम्परा बस इसकी, नहीं कोई लिपि विधि धारा।
जयपुरिया मरवड़ मेवाड़ी, सबका ले मिश्रण जिसमें
गौर माटिया बोली भाषा, बोले अपना बन्जारा।

बन्जारा समाज अनूठी पोशाक पहनने वाला समाज रहा है। पुरुष धोती और मिरजई किस्म का कुर्ता या कमीज पहनते हैं, सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। घुमक्कड़ होने के नाते पावों में ये विशेष प्रकार के जूते पहनते हैं। इस समाज की महिलाओं की पोशाक अत्यन्त आकर्षक होती है। किशोरी से लेकर प्रौढ़ स्त्रियाँ तक घाघरा, ओढ़नी और बटनदार कुर्ती की तरह चोली पहनती हैं। इनके वस्त्रों पर कशीदेकारी होती है। इनकी चुनरी या ओढ़नी पर काँच, कौड़ियों  और सिक्कों की सजावट होती है। इनके यहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषणों का प्रयोग करते हैं। महिलायें हाथी दाँत की चूड़ियाँ पहनती हैं, गले में काँच की मणियों की माला और पैर में पीतल की पैंजनी पहनती हैं। इनकी पोशाक और आभूषणों का परिचय देते हुए कवि कहता है -

पुरातनी गहनों से शोभित, बन्जारन है मह-पारा
कौड़ी जड़ी काछड़ी पहने, लम्बा सा एक लशकारा।
परम्पराओं की उच्छिति में, ये पर्वत सा रहा खड़ा
सिर पर पगड़ी अंग अंगरखा, पहने अपना बन्जारा।

बन्जारा समाज उत्सव प्रिय होता है। वैसे ये समाज हिन्दुओं के सभी पर्व मनाता है परन्तु होली और तीज का त्यौहार बहुत धूम-धाम से मनाता है। होली में नाच-कूद, सुरापान और राग-रंग के साथ ये मनोरंजन करते हैं। इनके गीत बडे़ सुरीले होते हैं। फागुन भर बन्जारा समाज नाचता, गाता और आनंद में डूबा रहता है। अपनी कृति में कवि इस सम्बन्ध में कहता है -

रंगों का त्यौहार मनाने, का इसका है ढंग न्यारा
जीर्ण वसन पर रंग खेलने, को अपनाये जग सारा
मद-मदिरा की वारिस होती, पाँच दिनों के उत्सव में
नये-नये परिधान पहन कर, खेले होली बन्जारा

मुग़ल काल और उससे पहले भी हमारे देश में बन्जारों की बणजी चलती थी। ये उस काल में अनाज, नमक, गुड़, तेल, कपड़ा, सूत, कपास आदि से लेकर हीरे जवाहरात और मोतियों का व्यवसाय करते थे। ऐतिहासिक अध्येताओं द्वारा इनके वैदिक युग में होने के प्रमाण स्पष्ट किये गये हैं। उस काल में ये पशुओं का लेन-देन करते थे और पशुओं पर विभिन्न प्रकार के सामान लादकर ले जाया करते थे।

कुल मिलाकर बन्जारा समाज वणिक समाज है, जो घुमंतू होने के कारण प्रारम्भ से ही व्यापार से जुड़ा हुआ हमारी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में संलग्न रहा है। ये स्वभाव से स्वाभिमानी और परोपकारी होते हैं, स्वावलंबन और देशप्रेम इनमें कूट-कूटकर भरा होता है, इनकी बहादुरी और शौर्यता का वर्णन करते हुये कवि कहता है -

काट काट कर सर अरियों के, रण थल पाट दिया सारा
शीश चढ़ाकर रण देवी को, प्रण पथ सजा दिया न्यारा
गोरा बादल जिसके पुरखे, कोई सनद उसे देगा
सदियों से निष्ठा का मानी, बना रहा है बन्जारा

हमारे देश में अंग्रेजों का आगमन घुमंतू व्यापारियों के रूप में हुआ था। व्यापारी से शासक बनते ही अंग्रेज शासकों ने भारतीय उद्योग धंधों को तो नष्ट किया ही, साथ ही बन्जारा समाज के खिलाफ ऐसे-ऐसे नियम कानून बनाये जिनके प्रभाववश इनके व्यवसाय हाशिये पर आ गये, परन्तु इन्होंने हार नहीं मानी और अपने आपको दूसरे अन्य व्यवसायों से जोड़ लिया -

नमक विधेयक से गोरों ने, धन्धा मेट दिया सारा
मजबूरी में बेच रहे थे, कंबल गोंद रसद फारा
स्वाभिमान के घर में ज्यादा, धीरज धैर्य नहीं होता
दांड़ी मारच में बापू संग, दौड़ पड़ा था बन्जारा

आज परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल चुकी हैं और बन्जारा समाज अपना संपूर्ण गौरवपूर्ण इतिहास खोकर मेहनत मजदूरी करके गुज़र बसर कर रहा है। स्वतंत्र रूप में इन्हें मकान या सड़क बनाने का काम करते या खेत, खदानों में मज़दूरी करते देखा जा सकता है।

आजा़द भारत में इस देशभक्त, परमार्थी, स्वावलंबी एवम् स्वामिभक्त समाज को देश से जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। इस समाज विशेष के बच्चों तक अभी शिक्षा का प्रकाश नहीं पहुँचा है। ऐसे दुखद समय में ’बन्जारा’ कृति के कृतिकार का कहना है कि बन्जारा समाज भारत का बल है, इसे मौजूदा विकास की धारा से जोड़ना हमारे देश की सत्ता का कर्तव्य है -

जब जब विघटन बाण चला है, तब तब युद्ध गया हारा
जब सन्देह सुनामी आयी, साथ न देता है यारा
इसको उत्थानित करना है, धन मन ज्ञान प्रशिक्षण से
घट जायेगा भारत का बल, अगर घटेगा बन्जारा

अन्त में कुल मिलाकर बन्जारा कृति डा. मुकेश कुमार सिंह की ऐसी अनूठी कृति है जिसमें बन्जारा समाज का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब स्पष्ट नज़र आता है। यह गागर में सागर के समान है। इसमें बन्जारा समाज सम्बन्धी विभिन्न जानकारियाँ बड़े ही सरस और सरल रूप में संजोयी हुयीं हैं। ये पुस्तक आम पाठकों के लिए तो हितकर है ही, बन्जारा समाज के लिए भी संग्रहणीय है। तभी कृतिकार डा. मुकेश कुमार सिंह अत्यन्त विश्वास के साथ कहते हैं -

शब्द शब्द में संचित कर दी, मैंने भावों की धारा
अगर नहीं पढ़ पाये इसको, फिर न मिलेगी दोबारा
पाठकगण अपनायें इसको, या बिलकुल ख़ारिज कर दें
लेकिन मेरे बाद रहेगी, मेरी पुस्तक बन्जारा।

और अब सम्पूर्ण पुस्तक को पढ़कर मैं भी कविवर मुकेश सिंह के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहता हूँ -

मेरा भी विश्वास अटल है, अनुपम कृति है बन्जारा।
इसमें बन्जारे समाज का, संचित है वैभव सारा॥
जितना इसको पढ़ते जायें, उतना ही ये सुख देगी।
निश्चित ही ’मुकेश’ की पुस्तक, कृतियों में है ध्रुव तारा॥

शुभकामनाओं सहित

- सुनील बाजपेयी
मकर संक्रांति, सोमवार
15 जनवरी, 2024

 

 

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