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बन्जारा

डॉ. मुकेश कुमार सिंह

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16999
आईएसबीएन :9781613017838

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बन्जारा समाज के जीवन पर अप्रतिम पुस्तक


'बन्जारा' काव्यकृति

कवि की अन्तरात्मा की अभिव्यक्ति

 

देव सभा में नारद जी के प्रस्ताव को मानते हुए देवों ने निर्णय लिया कि मृत्यु लोक को सरस बनाने के लिए वहाँ कलाओं का प्रचार-प्रसार होना चाहिए ताकि लोगों में नया उत्साह जागृत हो सके। उनमें से एक कला काव्य की भी है, जो कलाओं में सर्वश्रेष्ठ विधा है। कविता प्रेमी भली भांति जानते हैं कि कविता तनाव से मुक्त कर जीवन को रसमय बनाती है।

संभवतः इसीलिए ऋषियों मुनियों ने यहाँ जन्म लेकर इस कार्य को महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखकर संपन्न किया। कविता बिना अंतसप्रेरणा के नहीं लिखी जा सकती है। अंतसप्रेरणा ही अभिव्यंजना को प्रेरित करती है। अभिव्यंजना के द्वारा अंतः प्रेरणा को स्थायित्व प्रदान करना कवि कौशल व कवि शक्ति की कसौटी बनती है। काव्य लेखन में प्रतिभा के साथ व्युत्पत्ति और अभ्यास को भी नकारा नहीं जा सकता है। वास्तव में कवि भाव जगत को परिष्कृत करके आत्मावलोकन को स्थापित करता है। कविता लेखन की अनेक विधाएं हैं। जिनमें एक विधा मुक्तक भी है। प्रायः मुक्तक काव्य में, जीवन की मनोरम छोटी अंतरंग घटना का चित्रण ही अभीष्ट होता है। मुक्तक की अभिव्यक्ति सहृदयी को रससिक्त कर भाव विह्वल करने की क्षमता रखती है। मुक्तक कविता की स्वतंत्र छन्दबद्ध तथा स्वयं में सम्पूर्ण काव्य विधा है। जिसे किसी भी छन्द में लिखा जा सकता है। मुक्तक के चार चरण होते हैं जिसके प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ चरण में तुकांत (अंत्यानुप्रास) समान होते हैं। तृतीय चरण तुकांत से मुक्त होता है। मुक्तक के सभी चरणों में समान मात्रायें होती हैं। विशेष बात यह है कि शिल्प के साथ-साथ मुक्तक में लयात्मकता अति आवश्यक है। कुछ विद्वानों के अनुसार मुक्तक में वर्णों की संख्या तथा मात्राभार की गणना मान्य है। मुक्तक गणों से मुक्त है। मुक्तक की परिभाषा के सन्दर्भ में आचार्य भिखारीदास जी का दोहाः-

"अक्षर की गिनती यदा, कहुं-कहुं गुरु-लघु नेम।
वर्णवृत्त में ताहि कवि, मुक्तक कहैं सप्रेम।"

मुक्तक के संबंध में इतना कहने के बाद 'बन्जारा' काव्यकृति की चर्चा के पूर्व कृतिकार डॉ. मुकेश कुमार जी के संबंध में जान लेना भी आवश्यक है। सहृदय तथा शालीन व्यक्तित्व के धनी डॉ. मुकेश कुमार उ० प्र० वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में निदेशक का दायित्व निर्वहन करने के पश्चात् शैक्षणिक अधिष्ठाता एवं प्रोफेसर के दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। डॉ. मुकेश को ए.के.टी.यू. द्वारा उ.प्र. का सर्वश्रेष्ठ तकनीकी शिक्षक का पुरुस्कार भी प्राप्त हुआ है। डॉ. मुकेश उच्च कोटि के शोधकर्ता होने के साथ-साथ हिन्दी कविता की कई विधाओं मे निरन्तर सृजन कर रहे हैं। उन्होंने मुख्य रूप से गीत, गज़ल, दोहे और मुक्तकों का सृजन किया है। डॉ. मुकेश की द्वितीय काव्य कृति बन्जारा में 234 मुक्तकों का संग्रह एक चमत्कारिक गुलदस्ते के रूप में हमारे हाथों में है। इसके पूर्व डॉ. मुकेश की 212 मुक्तकों की 'दुपट्टा' शीर्षक से काव्य कृति 2021 में प्रकाशित हो चुकी है। जिसके सभी मुक्तक दुपट्टे को लेकर कहे होने के कारण काव्य प्रेमियों के मध्य एक विशेष स्थान प्राप्त कर चुके हैं। डॉ. मुकेश ने द्वितीय काव्य कृति बन्जारा का प्रत्येक मुक्तक तांटक छन्द में लिखा है। जिसके प्रत्येक चरण का मात्राभार 30 होता है। पंक्ति में यति सोलह, चौदह तथा चरणांत तीन दीर्घ (sss) होते हैं। इसी छन्द में डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी ने अपनी काल जयी कृति 'मधुशाला' लिखी है।

डॉ. मुकेश सिंह ने बन्जारे की जीवन शैली व प्रवृत्तियों पर एक से बढ़कर एक मुक्तकों का सृजन किया है। प्रत्येक मुक्तक का समापन 'बन्जारा' तुकांत के साथ ही हुआ है। जिससे स्पष्ट है कि प्रत्येक मुक्तक में बन्जारा तुकांत के दो और तुकांत प्रयोग में लाये गये हैं। अतः तुकांतों की पुनरावृत्ति होना स्वाभाविक है। प्रत्येक तुकांत भिन्न परिस्थितियों मे भिन्न-भिन्न भावों को प्रदर्शित करता है। वास्तव में यह इस काव्य कृति की मौलिक विशेषता है। बन्जारा एक घुमन्तू ख़ानाबदोश वर्ग है। जिनका कोई स्थायी ठौर ठिकाना नहीं होता है। अपनी यायावर प्रवृत्ति के कारण वह जीवन पर्यन्त स्थायी निवास नहीं बनाता है। बन्जारे सपरिवार चलते फिरते अपने डेरों में देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहते हैं। इनके डेरों के समूह को टांडा कहते है। बन्जारों को कुछ स्थानों पर लौहगढ़वा भी कहते हैं। पहले इनका प्रमुख काम बैलगाड़ियों से नमक तथा लोहे के औजार जैसे चाकू, छुरी, हँसिया, कुल्हाड़ी बेचना था। विशेष अवसरों पर यह अपनी संस्कृति व भाषा के लोक गीतों को अपने विशेष वाद्य यंत्रों जैसे इकतारा, ढपली तथा खंजड़ी आदि के साथ बडे़ ही रोचक ढंग से प्रस्तुत करके तथा कलाबाजी के अनूठे करतब दिखाकर लोगों का दिल बहलाते हैं। प्रत्येक कार्य में परिवार की महिलाएं व बच्चे भी निष्ठा व लगन के साथ सहयोग करते हैं। बन्जारों का पहनावा बहुत ही आकर्षक होता है। अपने धर्म और संस्कृति के प्रति आस्थावान होने के कारण बस्ती से सुदूर जंगल में डेरा डाल कर तथा बंज (व्यापार) करने के कारण इनको बन्जारा कहते है। डॉ. मुकेश की कृति बन्जारा से गुजरते हुए मुझे आभास हुआ कि मैं बन्जारों की जन्म कुण्डली बाँच रहा हूँ। कवि की पैनी व शोधपूर्ण दृष्टि ने बन्जारों की जीवनशैली को सार्थक मुक्तकों के माध्यम से व्यक्त किया है। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि कवि ने बन्जारे के जीवन संघर्ष, कला संस्कृति तथा प्रवृत्तियों को जिया है। बन्जारा काव्य कृति के मुक्तकों का सृजन आमजन की भाषा में किया है। इस काव्य कृति के अधिकांश मुक्तकों में शिल्प, कला भाव तथा भाषा की मौलिकता का विशेष ध्यान रखा है। मुक्तकों का भाव पक्ष अधिक मजबूत है। जिसका परिचय मैं कृति के मुक्तक से कराता हूँ -

"निज मन को विस्तारित करके, अपनाया भारत सारा
 छोड़-छाड़ वैभव महलों का, हाथ ले लिया इकतारा।
 दुख-पीड़ा यातना व्यथा को, अपने सीने में रखकर
 अपना जीवन गीत बनाकर, गाता जाये बन्जारा॥"

कृति कार ने उक्त मुक्तक में बन्जारे के जीवन संघर्ष को प्रस्तुत करके अपना ध्येय स्पष्ट कर दिया है। बन्जारों का समुचित विकास न होने से व्यथित होकर कवि अपने भावों को इस प्रकार व्यक्त करता है कि -

"बिसराया शासन सत्ता ने, मिली नहीं इनको धारा।
 नहीं खाप का बल था कोई, नहीं जाति का था नारा
 इनकी पुश्तें भी मिट जातीं, रह जाते इतिहासों में
 अपने साहस बहादुरी से, जीता जग से बन्जारा॥

प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक बनाया है अतः एक दूसरे के प्रति आर्कषित होना स्वाभाविक है जिसका एक दृश्यः-

घूम घूम घूमर जब नाचे, तब दिखता है लशकारा।
परम्परा संस्कृति दिखलाते, खंगला दोहड़ा कन्दारा॥
बंजारिन ने बाल गॅूंथकर, बाँधी फलियाँ चोटी में।
लुगड़ी में छिपती बन्जारन, मुस्काता है बन्जारा॥

जहाँ श्रंगार है वहां आकर्षण है प्यार है। यहाँ बन्जारन का तैयार होकर लुगड़ी में छिपना तथा उसे देखकर बन्जारे का मुस्कराना इसी बात की पुष्टि करता है। बन्जारे स्वयं को सनातनी मानते हैं, और सनातनी त्योहार भी जमकर मनाते हैं। इसी भाव का मुक्तक देखें -

दीवाली पर मवेशियों का, ये श्रृंगार करें सारा
मक्का उड़दी पकवानों से, भोग लगाता है न्यारा
नहीं और दृष्टान्त दूसरा, दुनिया में इसके जैसा
पशुधन की जिस उत्तम विधि से, पूजा करता बन्जारा

उक्त मुक्तक से स्पष्ट है कि बन्जारे हमारे तरह ही सभी सनातनी त्यौहारों को पूर्ण आस्था के साथ मनाते हैं। बन्जारों की राष्ट्रप्रेम की भावना पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। उनके राष्ट्रप्रेम को व्यक्त करता हुआ मुक्तकः-

नमक विधेयक से गोरों ने, धन्धा मेट दिया सारा
मजबूरी में बेच रहे थे, कंबल गोंद रसद फारा
स्वाभिमान के घर में ज्यादा, धीरज धैर्य नहीं होता
दांड़ी मारच में बापू संग, दौड़ पड़ा था बन्जारा

उक्त प्रभावी मुक्तक से स्पष्ट है कि बन्जारों ने देश को आजाद कराने में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग किया था। बन्जारा जन्म जाति प्रकृति प्रेमी होता है। बन्जारे अपने डेरे प्रायः नदी, नाले और प्रोखर के आस-पास पेड़ों के नीचे डालते हैं ताकि उन्हें प्राकृतिक हवा, पानी, छाया तथा कुदरती सौन्दर्य का लाभ निरन्तर प्राप्त होता रहे। बन्जारों के पूर्वजों की बहादुरी से इतिहास भरा पड़ा है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए डॉ. मुकेश का ये प्रभावी मुक्तक भी देखें -

पौरूष के बल जिसने मोड़ी, बहती नदिया की धारा
साहस से जो छू पाया है, ऊँचे अम्बर का तारा
सेवालाल और लखीशाह, की तो शान निराली थी
दिखा नहीं मुझको फिर कोई, उनके जैसा बन्जारा

उक्त मुक्तक के माध्यम से रचनाकार ने बन्जारों की वीरता साहस और पौरुष को स्पष्ट किया है। बहुत ही मार्मिक मोड़ देते हुए कवि ने बंजारें के माध्यम से जीवन के यर्थाथ को आध्यात्म की पृष्ठभूमि पर उतारा है।

पंचतत्व में जब मिल जाये, पंचतत्व का तन सारा
और अस्थियों को ले जाये, अविरल गंगा जल धारा
याद तुम्हें मेरी आये तो, मेरे ये मुक्तक पढ़ना
मुझको लेकर आ जायेगी, कविता की कृति बन्जारा

कवि तो काल जयी होता है। लेकिन दैहिक अनुपस्थिति की कल्पना को व्यक्त करते हुए कहता है कि मेरे बाद भी जब मेरी यह काव्य कृति बन्जारा पढे़गें तो इस कृति के माध्यम से आप मुझे अपने निकट पायेंगे। बन्जारा काव्यकृति का रचयिता अपने कवि कर्म से इतना संतुष्ट है कि भावावेश में गा उठता हैः-

शब्द शब्द में संचित कर दी, मैंने भावों की धारा
अगर नहीं पढ़ पाये इसको, फिर न मिलेगी दोबारा
पाठकगण अपनायें इसको, या बिलकुल ख़ारिज कर दें
लेकिन मेरे बाद रहेगी, मेरी पुस्तक बन्जारा।

उक्त मुक्तक में कवि विश्वास के साथ कहता है कि मैंने तो अपना कविधर्म ईमानदारी से निभाया है अतः मेरी यह पुस्तक "बन्जारा" अमर रहेगी। उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि कवि डॉ. मुकेश सिंह ने काव्य कृति बन्जारा में उक्त सामाजिक सरोकार के विभिन्न विषयों को मुक्तकों के माध्यम से व्यक्त किया है तथा बन्जारों के जीवन को सूफ़ियाना ढंग से प्रस्तुत किया है। लोक संवेदना से जुड़ी व्यवस्था, तकलीफों से सन्दर्भित मुक्तक मन को भीतर तक कुरेदने की क्षमता रखते हैं। जिन पर और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। जिसे मैं सुधी पाठकों के विवेक पर इस संभावना से छोड़ता हूँ कि बन्जारा काव्य कृति कवि के अंतरआत्मा की अभिव्यक्ति हैं जिसका काव्य जगत में निश्चित रूप से कृतिकार की भावना के अनुरूप स्वागत होगा।

11 अगस्त, 2023

- जयराम 'जय'
पर्णिका बी-11/1 कृष्ण बिहार आवास विकास
कल्याणपुर, कानपुर - 208017 (उ.प्र.)
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