नई पुस्तकें >> बन्जारा बन्जाराडॉ. मुकेश कुमार सिंह
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बन्जारा समाज के जीवन पर अप्रतिम पुस्तक
साहित्य के दर्पण में बन्जारा
मेरा मानना है कि कविता अभ्यास अथवा अध्ययनशीलता से नहीं आती, बल्कि व्यक्ति के भीतर मौजूद रागात्मक प्रवृत्तियों से आती है और यह जन्मजात होती है। हाँ, यह अवश्य होता है कि रचना के परिमार्जन में मदद मिलती है। दिमागी कसरत से कविता लिखी तो जा सकती है लेकिन ऐसी कविता जनमानस पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती। दूसरी ओर व्यक्ति का सम्बन्ध व्यावसायिक दृष्टि से चाहे जितने जटिल तकनीकी काम-काज से जुड़ा हो, रागात्मकता उसके काम-काज में जुड़ाव और रस पैदा करती है। जिससे उसके किये गये कार्य में कुशलता एवं सुन्दरता झलकती है। इस दिशा में उ.प्र. वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के प्रोफेसर डॉ. मुकेश सिंह का नाम बड़ी शिद्दत के साथ उभरता है जो कई वर्षों से मुक्तक, गीत व गज़लों पर निरन्तर अपनी कलम चला रहे हैं। हाल ही में उनका 'दुपट्टा' नामक मुक्तक संग्रह सुधी पाठकों के बीच आ चुका है। इस शीर्षक से आपने नारी की लज्जा में उपयोग होने वाले वस्त्र 'दुपट्टा' के अनेक आयामों को प्रस्तुत किया है। नारी लज्जा के विभिन्न आयामों को काव्यात्मक रूप से प्रस्तुत करके रचनाकार ने अपनी काव्य क्षमता का परिचय दिया है। दुपट्टा पुस्तक में कवि ने धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक और श्रंगारिक भावनाओं को बख़ूबी से उभारा है।
डॉ. मुकेश जी ने दूसरे मुक्तक संग्रह बन्जारा में बहुत ही मार्मिक और व्यापक रूप से बन्जारों की जीवनचर्या एवं मनोदशा को रेखांकित किया है। इस प्रकार हम यहाँ कह सकते हैं कि साहित्य ही वह सशक्त माध्यम है जो समाज में जहाँ प्रबोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है वहीं अशक्ति का दुखद अंत कर शिक्षा प्रदान करता है। पुरखों की धरोहरों को आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में सहेजना किसी को भी हास्यास्पद लग सकता है। लेकिन कवि ने बन्जारों के माध्यम से पूर्वजों के सम्मान तथा देशप्रेम को छुआ है। जिसकी बानगी इस मुक्तक में देखें -
युगों युगों से पुरखागत से, लिये निडरता की धारा
पुरखों की इज्ज़त की खातिर, घर-दर छोड़ दिया सारा
बन्जारों की जाति कबीले, अलग अलग सब बतलाते
लेकिन राष्ट्रधर्म को अपना, बतलाता है बन्जारा।
सही अर्थों में अच्छा साहित्य व्यक्ति और उसके चरित्र निर्माण में भी सहायक होता है। यही कारण है कि समाज के नव-निर्माण में साहित्य की केन्द्रीय भूमिका परिलक्षित होती है। इससे समाज को दिशा बोध तो होता ही है साथ ही उसका नव-निर्माण भी होता रहता है। कवि के इस दूसरे संकलन बन्जारा में छन्द शास्त्र के अनिवार्य व्याकरण अंग का पूरा निर्वाह किया गया है। फलस्वरूप पठन-पाठन में नियमित प्रवाह मिलता है। विषम से विषम परिस्थितियाँ भी बन्जारों की दीवानगी और कर्मठता के आडे़ आने से डरती हैं। कवि ने इस बोध को बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से उकेरते हुए लिखा है -
अपनी धुन में ये रहता है, पग-पग ग़म का हो मारा।
सभी ग्रहों की वक्रदृष्टि हो, या फिर डूबा हो तारा॥
जो होना है होकर रहता, होनी को किसने टाला।
बासन्ती मधुमय मस्ती में, फाग उड़ाता बन्जारा॥
माना जाता है कि कविता वही सार्थक होती है जो विषय वस्तु की वास्तविक तस्वीर खींच दे। कवि मुकेश जी ने बन्जारों की जीवन शैली का समग्रता से चिंतन-मनन करते हुए जो शब्द चित्र बनाये हैं वो प्रशंसनीय हैं। आज के अर्थ-प्रधान युग में संतानों द्वारा माता-पिता की उपेक्षा, संस्कारहीनता और सामाजिक विषंगतियों के चलते लक्ष्य विहीन स्वच्छंदता चिंताजनक है। इसकी एक झलक कवि ने बन्जारों के माध्यम से कुछ इस प्रकार प्रस्तुत की है -
अंग्रेजी मुग़लई सत्ता से, झुका नहीं ये मतवारा।
जीवन हार गया हो चाहे, लेकिन धर्म नहीं हारा॥
भ्रमित युवा विचलित नव पीढ़ी, इसका प्रेम नहीं जानी।
मेरे दादा परदादा के, साथ रहा है बन्जारा॥
इस तरह के तमाम छन्दों के उदाहरण दिये जा सकते हैं जिसमें रचनाकार की कार्य कुशलता प्रतिबिम्बित होती है। यहाँ पर कवि का दूसरा पक्ष यदि उजागर न किया जाये तो उनके व्यवसायिक पक्ष का परिचय नहीं मिल पायेगा। डा० मुकेश उ. प्र. वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान में निदेशक पद के दायित्वों का सफल निर्वहन करने के पश्चात शोध व शिक्षण क्षेत्र में भी गत कई वर्षों से उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप उन्हें अब्दुल कलाम प्राविधिक विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश द्वारा सर्वश्रेष्ठ तकनीकी शिक्षक तथा आल इण्डिया इन्टलेक्चुअल सोसाइटी द्वारा यूपी रत्न जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। डा० मुकेश ने साहित्य के साथ-साथ तकनीकी क्षेत्र में करेक्टराइजेशन आफ पालीमर्स एण्ड फाइबर्स, इंजीनियर्ड फैब्रिक्स, इण्डस्ट्रियल प्रैक्टिसेस इन वीविंग प्रिपेरेटरी, कासमेटो टेक्सटाइल्स जैसे तकनीकी विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो वैश्विक स्तर पर छात्रों द्वारा अध्ययन में लाई जा रही हैं।
डा० मुकेश ने वस्त्र रेशे विषय पर हिन्दी भाषा में पुस्तक लिखकर तकनीकी ज्ञान को हिन्दी भाषी छात्रों के लिए उपलब्ध कराकर अपने समकक्ष तकनीकी लेखकों से बढ़त प्राप्त कर ली है। मेरी दृष्टि में यह एक अप्रतिम सामाजिक दायित्व का निर्वहन है जो यह दर्शाता है कि रचनाकार की चिंतनशीलता कितनी व्यापक और अपने सरोकारों से जुड़ी हुई है। हम यह कह सकते हैं कि ये कार्य भी किसी साहित्यिक अनुष्ठान से कमतर नहीं है।
एक विषय बन्जारा पर 234 मुक्तक लिख देना सहज कार्य नहीं है। निश्चित रूप से रचनाकार ने काव्य सृजन को किसी पूजा की भाँति ही पूर्ण किया है। अन्यथा विचारों में इतना फैलाव नहीं हो सकता है। प्रभु से मेरी यही कामना है कि डा० मुकेश की कलम सदैव श्रेष्ठ कविता की ओर अग्रसर रहे और उनकी कलम से एक के बाद एक कालजयी पुस्तकों का सृजन होता रहे।
- लोकेश शुक्ल
(गीतकार एवं पत्रकार)
ग्वालटोली, कानपुर
मो. नं. 6392497198
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