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जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

'जलाक’

 

एक गाड़ी है जिस की खिड़की पर मैं कोहनी रख कर बैठी हूँ। बाहर के दृश्य गाड़ी के साथ-साथ पीछे को दौड़ते चले जाते हैं। गाड़ी और उनमें होड़ लगी हुई है। लेकिन इस से भी अधिक मेरे अन्दर एक दौड़ लगी हुई है। एक कैमरा रील दर रील मेरे अन्दर खुलता जा रहा है।

सुदूर विदेश की धरती पर बीते बचपन के वे तीन वर्ष हैं... जिन में मन की परतों पर खुदी गहरी लकीरें हैं।

टेलिविजन पर आने वाले चित्र और उनमें चुम्बन-आलिंगन के स्पष्ट दृश्य हैं। आम सड़कों और शॉपिंग सेन्टर्स के बड़े-बड़े खुले बरामदों में चौदह-पन्द्रह-पन्द्रह साल के बच्चों का हाथों में हाथ डाले विचरना है। कमरों पर हाथ रखे लड़कियों को थामना है और मेरी उम्र के दिनों का सालों के रूप में बढ़ना है।

यहाँ जिस स्थिति तक पहुँचते सालों लगते हैं, वहाँ वे मनस्थितियाँ दिनों में परिपक्व हो जाती है।

यही नहीं - माता-पिता के वे वर्जित दृश्य हैं, जो वहाँ जाने पर वर्जित नहीं रह गए थे।

फिर एकाएक उन सारे दृश्यों पर एक पटाक्षेप है। क्या मेरी मनस्थिति उस पटाक्षेप के लिए तैयार नहीं थी।

शोभना और देवला की मनःस्थितियाँ क्या बहुत लचीली थीं? या उनकी वे तमन्नाएँ जागी ही नहीं कभी?

आप ही बताइए... ऊपर चढ़कर कोई नीचे उतरना चाहेगा? कोई आगे जाकर पीछे मुड़ना चाहेगा...?

लेकिन सवाल यह है कि आगे बढ़ना और ऊँचे चढ़ना किसे कहते हैं...?

मैंने जिस वस्तु-स्थिति को केवल भौतिक रूप में अनुभवा शायद दूसरों ने उसे उस रूप में नहीं लिया।

शोभना और देवला ने वहाँ जो देखा, जो सीखा वह उनके व्यक्तित्व को दृढ़ बनाता गया... उनके स्वरूप को और भी निखारता चला गया... लेकिन मैंने जो देखा, वह मुझे और भी विवश करता गया... मुझे कमजोर बनाता गया।

इस सबका दोष किसे दूँ...?

माँ को... या पिता को...? या स्वयं अपने आपको...?

माँ ने बहकती हुई सामाजिकता को स्वीकार नहीं किया.... क्या इसलिए...? पिता ने माँ की इस घटिया दकियानूसी धारणा पर हथियार डाल दिए... क्या इसलिए?

मैं आज तक उन सबसे घृणा करती रही हूँ। इसी घृणा के वशीभूत हो, मैं बार-बार जाकर उनके शान्त हुए जीवन में पत्थर फेंकती रही हूँ...?

मैं यह क्यों नहीं मान सकी कि वे भी कहीं स्थितियों के समक्ष विवश थे। एक स्थिति वह थी, जो उन्हें विदेश ले गई और एक वह थी जो उन्हें वापस ले आई।

मेरी शिकायत यह है कि उन सब स्थितियों के बीच कहीं बच्चों की मानसिक उथल-पुथल को उन्होंने क्यों नहीं आँका? आँका नहीं, आँकने की कोशिश तो की होती!

पर मैं यह भी कैसे कह सकती हूँ कि उन्होंने यह कोशिश की ही नहीं... क्योंकि मेरी ही मनस्थिति में ये टकराव आए... दूसरे बच्चों के साथ उन्हें कोई उलझन नहीं हुई।

पिता ने वापस देश लौटने का समझौता क्यों किया यही मुझे उम्र भर सालता रहा... 1

लेकिन अब समझती हूँ... एक-दूसरे के समक्ष हथियार डाल देना... हारना नहीं अन्ततः जीतना ही होता है। आज वे सब जीते हैं और मैं ही हारी हूँ।

बचपन के वे खिलौने... वह साज-समान और बिछौने जब बाहर जाने की झोंक में बिखेरे गए... बाँटे गए... कुछ बेचे गए... तो मैं एक-एक चीज को पकड़ कर रोती रही। खीझती रही माँ पर... अपनी चीजों को पकड़-पकड़ कर सीने से लगाती रही... मैं नहीं दूँगी... माँ इसे मैं साथ ले जाऊँगी।

मेरी किसी ने नहीं सुनी।

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