लोगों की राय

नई पुस्तकें >> जलाक

जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

मेरे बचपन की जिद... क्या जाने कायदे और कानून कि मेरी छोटी साईकिल, हवाई जहाज पर नहीं जा सकती। मेरा सूत का सतरंगा पलंग (जो घर में पुश्तैनी रूप से चला आ रहा था) भी नहीं जा सकता था।

उस सारी पीड़ा को, वहाँ के सब्जबाग दिखा-दिखा कर दूर किया जाता था। उन बचपन के खिलौनों को सुदूर भविष्य के सपनों में देखा जाता था।

माता-पिता ने यह नहीं सोचा कि बच्चों की आँखें भविष्य नहीं केवल वर्तमान देख सकती हैं?

फिर उन सपनों का भी क्या हुआ... ?

उन सपनों के निकट ले जाकर... फिर उन्हें बेरहमी से तोड़ दिया गया।

बचपन से ही हमारी किस्मत में एक खानाबदोशों वाली जिन्दगी लिखी थी। इस जिन्दगी में अपना कुछ भी नहीं था। बस हर बार जैसे कोई मुट्ठी भर ऐशोआराम किराए पर ले लें और फिर छोड़ दें।

कैसी तटस्थ मनःस्थिति के रहे होंगे मेरे माता-पिता जो कभी पा लेते - कभी छोड़ देते... और फिर कुछ अन्य पाने की धुन में दौड़ पड़ते।

यही पाने - छोड़ने का शनिवार मेरी काया में लिपटा है।

मैं मन से कभी ऐसी स्थिति के साथ समझौता नहीं कर पाई। पर क्या जानती थी, अन्ततः पाना और खोना ही मेरी नियति बन जायेगी।

माता-पिता के अपनी जिन्दगी के साथ किए गए तजुर्बे (अनुभव) कभी-कभी बच्चों को कितने महंगे पड़ते हैं, कभी माता-पिता ने सोचा होगा...?

माता-पिता का आपसी तनाव जितना बच्चों को तोड़ता है उतना ही उनका आपसी लगाव, बच्चों को उनसे दूर ले जाता है।

माता-पिता की अनन्य निष्ठा की बच्चों को उतनी ही जरुरत है जितने उनके आपसी लगाव की।

इन दो स्थितियों के बीच कोई-कोई माँ-बाप ही सन्तुलन रख पाते हैं... अधिकांश भटक जाते हैं।

अपने आदर्श और अपनी मान्यताएँ थोपते-थोपते माँ-बाप कभी-कभी बच्चों को कुछ का कुछ बना डालते हैं। इसी तरह बच्चों की बेलगाम, मरजी को तरजीह देकर चलने वाले माता-पिता भी अन्ततः धोखा ही खाते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book