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जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

हर कमरे में सबका अपना-अपना साज-समान था। कलर्ड टी.वी., टेपरिकार्डर विडियो कैसेट आदि-आदि। रसोईघर में माइक्रोवेव ओवन, डिशवाशर, गारबेज डिस्पोजल और न जाने क्या-क्या !

मिसेज धवन बताती जा रही थीं, हम सुनते जा रहे थे। तब तो पूरी तरह समझ में भी नहीं आए थे... सब चीजों के नाम... लेकिन बाद में तो वे नाम जैसे हमेशा के लिए मेरे जहन में खुद गए थे। ऐसे खुदे कि फिर कभी मिटे ही नहीं। वे सारे नाम-जनित वैभव मेरी जिन्दगी का मापदण्ड बन गए। जीने का चौखटा बन गए... और चौखटे को बनाने की धुन में, जैसे कोई उम्र भर मेरे पीछे लगा रहा।

जब वह चौखटा टूट गया तो जिन्दगी का शीशा किरच-किरच टूटता चला गया। ये सब हमारे घर में भी होगा न। मैंने माँ से पूछा था।

उन्होंने पिता की ओर प्रश्न भरी नज़र उठा दी थी पिता की दृष्टि में उत्तर नहीं, विस्मय था।

मेज पर विभिन्न प्रकार के षड़ व्यंजन सजाए थे उन्होंने। जमकर खा सकते थे हम लोग... पर झिझक और नयेपन ने कुछ करने नहीं दिया।

दो तीन दिन हम धवन अंकल के घर ही ठहरे थे। फिर हम अपने पहले से ढूँढे हुए घर में चले गए थे। उनका अपने यहाँ ठहराना... और उन सब सुखों का हम में लालच आ जाना भी कहीं मेरी बरबादी के इतिहास के कारण रहे होंगे।

उस सारे वैभव के सामने, देहरादून के राजा चक्रधर का महल भी कितना फीका हो गया था। वहाँ के कमरे और दालान इस तरह झकाझक चमकते नहीं थे। उन गलियारों में एक अनाम अँधेरा सा बिछा रहता था। फानूस मसनदी-मखमल से गलीचे वहाँ भी थे लेकिन वे सब कितने पुराने हो चुके थे... यहाँ की तरह लकदक - चमचम करता हुआ कुछ भी नहीं था। महाराज रसोई बनाते थे तो सारा धुआँ गलियारों में भर जाता था। भण्डारघर की दीवारें काली-धुआँसी हो गई थी। बड़े-बड़े देगचे चूल्हे पर चढ़ते थे तो काले हो जाते थे... महाराज के कपड़े भी तो कितने तेल-चुए से हो जाते थे। महाराज के कन्धे पर लटका हुआ लाल-परना.... कितनी बदबू मारता था... देसी घी की। यहाँ रसोई घर ऐसा लगता था जैसे यहाँ कभी कुछ बनता ही न हो। जगह-जगह छोटे-छोटे स्टैण्ड बने हुए थे... जिन पर पेपर-टॉवल नेपकिन टँगे रहते थे। धवन आँटी कितनी बेरहमी से उन्हें खींचती थीं और छोटे तौलियों को बराबर फाड़कर जरा सा हाथ पोंछकर कूड़े में डाल देती थीं। कैसी बरबादी करती हैं यह घर की। शोभना और देवला दीदी की भी यही राय थी।

राजा चक्रधर के बड़े लड़के जो मेजर और बिग्रेडियर के पदों पर लगे हुए थे... वैभव के सामने- वे भी पानी भरते दीखते थे।

धवन आँटी जब चलती तो लगता कोई मेम ठुमक-ठुमक कर चल रही है। राजमाता की चाल की गरिमा नहीं। उसमें उछलती नदी की उद्दामता थी, फिर भी ऊपर-नीचे जब वे चलती-फिरतीं तो लगता कोई राजरानी अपने महल में पूरे अधिकार से घूम रही है। उनका स्वभाव भी तेज नहीं था लेकिन चाल में एक अहम् था... एक सलीका था.. कि मेरी अल्हड़ उम्र के लिए ये सारे-सलीके पैने छुरे से मेरे अन्दर घुसते जाते थे। तो यह होता है विदेश.. तो यह होती है विदेश में रहने की ठसक... इसी से जब लोग वापस देश जाते हैं तो किसी से बात करना अपनी हेठी समझते हैं। क्यों न समझें.... उन्हें पूरा हक है यह समझने का। इस सब का कहीं स्वप्न भी देखा जा सकता है यहाँ।

उस दिन रात को लिविंग रूम में गप्पें मारते, टी.वी. देखते, खाते-पीते अनचाहे भी कई छोटे-छोटे तिनके गलीचे पर बिखर गए थे। सुबह माँ उन्हें हाथ से बीनने लगीं तो मिसेज धवन ने कहा- कुन्ती यों नहीं ये वॉक्यूम से साफ होगा... और वे अन्दर से एक मशीन सी ले आईं। स्विच लगाकर उसके हत्थे को टेढ़ा करके वह उसे गलीचे पर घुमाने लगीं... और .... यह क्या था... सभी भौच्चके से देख रहे थे... और गलीचा फिर नया का नया चमकदार हो गया था।

हमारे लिए यह सब सपनों का वह ध्रुव था जिसकी कल्पना भी हमने नहीं की थी ।

राजमाता की सारी सम्पदा, उसकी सुन्दरता यहाँ हवा हो गई थी। राजमाता का महल, राजा चक्रधर का भव्य-व्यक्तित्व कहीं इस नए वैभव के नीचे तिरोहित होने लगे थे। उनके यहाँ खाये षड़व्यंजन, उनके यहाँ खेले गए बचपन के पुराने खिलौने.... दूर-दूर से देखकर तरसने वाले ऊँची छतों वाले, मीनारों वाले दालान कहीं अमेरिका के इस मशीनी  कमाल में खोने लगे थे।

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