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जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

मैं तो कहीं बावली हो गई थी। मैं हैरान थी कि माँ, पिता, देवला और शोभना ने कैसे हर चीज को सहजता से लिया था।

क्या उन्हें सब कुछ पहले से मालूम था...? उन्हें तो हर चीज जैसे ऊपर छूकर निकल गई थी... और मैं... मैं तो जैसे विष्णु की तरह लक्ष्मी को काँख में दबाये... सारा अमृत पिये जा रही थी।

मैंने अपनी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में पढ़ा था कि देवता लोग कभी स्वर्ग तो कभी धरती लोक में विचरते रहते थे। यूँ स्वर्ग ही देवताओं का असली वास था। वहाँ किन्नर बालाएँ, अपसराएँ उनका मनोरंजन करती थीं। वहाँ नंदनवन था जो सदा हरा रहता था। वहाँ कामधेनु गाय थी जो सभी इच्छाओं को पूरा करती थी। मुझे लगा, विमान से बहुत ऊँचे उड़कर, बड़े-बड़े पहाड़ों और धरती के टुकड़ों को लांघकर हम भी स्वर्गलोक में आ गए थे... जहाँ अप्सराओं की तरह सुन्दरियाँ चारों ओर विचरती थीं। कामधेनु गाय की तरह इतना धन-धान्य था कि सब अपने स्वप्नों की पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए थे।

क्या स्वर्ग वहीं नहीं होता... जहाँ मुस्कुराते चेहरे बिना नकाब लगाए... एक मुक्त जीवन जीते हैं...? वहाँ के लोग ऐसे ही तो थे ।

हमारे देश में जो कुछ अँधेरे में होता है, वह सब यहाँ मुक्त होकर उजाले में होता है। यहाँ छिपाव- दुराव, धोखा और भ्रम नहीं था। यहाँ पिछले दरवाजे से किसी को बाँहों में छुप के नहीं भरा जाता था। मनचाहा तो खुलेआम उसे बाहों में भरकर प्यार कर सकते थे।

कितना अन्तराल था दो स्थितियों में।

यही नहीं, वहाँ जब कोई भी अमेरिकन मिलने आते या हम लोग जाते, तो वे आपस में गले-मिलकर गाल पर एक दूसरे को चूमते और पुरुष लोग बिल्कुल हम जैसे पराये देश की औरतों के साथ हाथ मिलाते थे। माँ कितना झिझकती थी और पहले ही हाथ जोड़ देती थी... लेकिन धीरे-धीरे माँ भी खुल गई थी। उस मिलाप में इतना अपनापन लगता था मुझे, कि दूर से नमस्ते में हाथ जोड़ने की प्रथा मुझे फीकी लगने लगी थी।

वही खुलापन और स्वछन्दता मेरी नियति का कोढ़ बन कर आज तक मुझे साल रहे हैं। कहीं पृथ्वी के ही एक कोने में वह सब व्यक्ति का अधिकार है और कहीं वही स्वछन्दता चरित्र का मानदण्ड बन जाती है।

मेरा यही अभिशाप है कि मैं अपने देश की लकीरों के बीच और पाश्चात्य-स्वच्छन्दता के बीच कहीं सीमा-रेखा नहीं खींच पाई।

मेरे पिता ने अपनी जवानी के कुछ वर्ष देहरादून के राजा चक्रधर के यहाँ शाही दर्जी के रूप में बिताए थे। मेरी माँ एक अमीर लेकिन अभिशापित माँ की बेटी थी... एक ऐसी माँ की, जिसे स्वयं उम्र भर मालूम नहीं पड़ा कि उसके लिए जिन्दगी का मतलब क्या है... ? वह विधवा होने के बाद हमारे संग रह कर अपना जीवन काटती रही। मैं अपनी नानी की लाड़ली रही हूँ। घर में जो कहानी मेरे जन्म की किवदन्ती के साथ जुड़ी हुई थी उसे मेरी नानी ने ही एक दिन मुझे सुनाया था।

अपने जीवन की कहानी भी उसने उसी दिन सुनाई थी... जिस दिन मैं बार-बार घर लौटना चाहकर भी कोई राह नहीं खोज पाई थी और अन्ततः नानी को अकेले में मिलने चली आई थी।

 

 

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