नई पुस्तकें >> तपस्विनी सीता तपस्विनी सीतात्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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सीता चरित्र पर खण्ड काव्य
प्रथम सर्ग
दासी एक कैकेयी की थी,
आई संग नैहर से रानी के,
रहती सदा पास में उनके,
करती थी सेवा वह मन से॥
जन्मी कहाँ, कहाँ से आई,
वह दासी रानी की,
किस कुल में वह जन्म हुई थी,
कौन जनक-जननी थे॥
जिस दिन था अभिषेक राम का,
उसके पहले के दिन,
निज इच्छा से चढ़ी भवन पर,
कर विचार अपने मन॥
वह मंथरा नाम्नी दासी,
छत पर खड़ी हुई थी,
देखा अवधपुरी की सड़कें,
जल छिड़कावित होतीं॥
फहरा रहीं पताकायें थीं,
चारों ओर नगर में,
शोभा थी अत्यन्त मनोरम,
पुर के प्रति रास्ते में॥
लोग लगा उबटन शरीर पर,
स्नान कर रहे खुश हो,
हर्षनाद कर रहे ब्राह्मण,
महाराज की जय हो॥
रंगे गये थे देव-निलय-
चूना-चंदन मिश्रण से,
ध्वनित हो रहे वाद्य मधुर,
भरा नगर लोगों से॥
वेद -पाठ हो रहे चतुर्दिक,
हय -गय थे उत्फुल्लित,
रंभा रहे थे, गाय-बच्छ सब,
खुशियों से आँदोलित॥
हर्ष जनित रोमांच भरे थे,
लोग सभी नगरी के,
फहरा रहीं पताकायें थीं,
लाल-नील रंगों में॥
देखी जब मंथरा दृश्य यह,
नहीं संभाल सकी थी,
राम-धाय को कुब्जा देखी,
दिखती पूर्ण खुशी थी॥
पीत वस्त्र पहने वह दासी,
अति सुन्दर थी दिखती,
पूछी कैकेयि-दासी उससे,
क्यों आनन्दित दिखती? ॥
क्यों प्रसन्न सब लोग दीखते,
क्या माता राघव की,
है अभीष्ट साधन में कोई,
बांट रही धन आदिक॥
फूली नहीं समाई धायी,
कुब्जा के कहने पर,
अति आनन्द-भाव में थी वह,
राघव-पद पाने पर॥
हे कुब्जे! कल महाराज,
रघुकुल-भूषण राघव को,
बना रहे युवराज अवध के,
देंगे खुशी सभी को॥
सुनकर ऐसे वचन धाय से,
कुब्जा मन में कुढ़कर,
उतर पड़ी नीचे छत पर से,
चेहरा पूर्ण अरुचिकर॥
था अनिष्ट दीखता टहलनी-
को, इसमें कैकेयी का,
गई महल में रानी के ढिंग,
दिया खबर उत्सव का॥
बोली 'मूर्खे सोती है क्या,
अति विपत्ति है आई,
विपद शैल है टूट रहा,
पर तू खुशियों से सोई॥
तुझे न कोई चिन्ता रानी,
समझे राजन वश में,
और तुझे ऐसा लगता है,
जग है तेरे वश में॥
तू समझे अनुरक्त नृपति हैं-
तुझ पर, प्रेम लुटाते,
तुझे क्या पता पीठ- पार्श्व में,
वह अनिष्ट हैं करते॥
तू मारे जब डींग भाग्य की,
मुझको ऐसा लगता,
झुलस रही है ग्रीष्म- ताप से,
तन मेरा है जलता॥
देख रही सौभाग्य तुम्हारा,
अस्थिर है, हे रानी,
मुझको यही समझ में आता,
तड़प रही बिन पानी॥
सुनकर ऐसे परुष वचन,
कुब्जा के मुह से रानी,
मन विषाद से युक्त हो गया,
कही क्रोध युत बाणी ॥
हे मंथरे! अमंगल की तो,
बात नहीं है कोई,
देख रही हूँ मुँह पर तेरे,
दुख की रेखा छाई ॥
थी मंथरा कुशल बातों में,
मिष्ठ वचन रानी के-
सुनकर, और खिन्न सी होकर,
कहीं दुखी होकर के॥
भेदभाव की बात उठाकर,
राघव के प्रति कुब्जा,
बोली, देवि विनाश कार्य है,
शुरू हुआ नगरी का॥
महाराज दशरथ कल को ही,
बैठाएँगे उनको-
पदवी पर युवराज, राज्य के,
खुशियाँ दे राघव को!!
यह दुख भरी खबर मैं पाकर,
दुख-सागर में डूबी,
चिन्ता से मैं जली जा रही,
पर तू माने खूबी॥
हे कैकय नन्दिनी! यह सुन लो,
अगर तुम्हें दुख होगा,
तेरा दुख मेरा है रानी,
मुझको भी दुख होगा॥
जन्मी हो तुम राजभवन में,
पत्नी हो राजा की,
पर मुझ को आश्चर्य हो रहा-
है, तुममे न तनिक चतुराई॥
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