लेख-निबंध >> प्रतिष्ठित भारतीय प्रतिष्ठित भारतीयशंकर दयाल शर्मा
|
3 पाठकों को प्रिय 73 पाठक हैं |
उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा कुछ प्रतिष्ठित भारतीयों के बारे में दिए गए व्याख्यानों का संकलन।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत पुस्तक में उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा कुछ
प्रतिष्ठित भारतीयों के बारे में दिए गए व्याख्यानों का संकलन है। ये
व्याख्यान पिछले 4 वर्षों में आयोजित विभिन्न समारोहों में दिए गए थे,
जिनमें उन्होंने इन महान विभूतियों के राष्ट्रीय योगदान को रेखांकित किया
है।
इन व्याख्यानों में देश के महापुरुषों के जीवन मूल्यों तथा राष्ट्र के पुनर्निर्माण में उन मूल्यों के गहरे प्रभावों की तलाश की गई है।
इन व्याख्यानों में देश के महापुरुषों के जीवन मूल्यों तथा राष्ट्र के पुनर्निर्माण में उन मूल्यों के गहरे प्रभावों की तलाश की गई है।
निवेदन स्वरूप
सम्माननीय उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा हमारी पीढ़ी के अग्रगण्य
पुरुषों में हैं। पूरा देश उन्हें जिस आदर से देखता है, मनोयोग से सुनता
है तथा उनके विचारों से प्रेरणा ग्रहण करता है—वैसे लोग अब
विलुप्त
होते जा रहे हैं। डॉ. शर्मा सही अर्थों में गांधीवाद के पोषक-प्रहरी के
साथ ही राष्ट्रीयता की धरोहर हैं। उपराष्ट्रपति के रूप में वह मान्य हैं,
लेकिन एक विचारक के रूप में श्रद्धेय हैं। ‘प्रतिष्ठित
भारतीय’ उनके ईमानदार और सजग उद्गारों का संचय है।
अंग्रेजी में ‘एमिनेंट इंडियंस’ नाम से उनकी जिस पुस्तक का प्रकाशन हुआ, उसे पढ़ते हुए मेरे मन में बार-बार यह बात आई कि यह पुस्तक हिंदी पाठकों के लिए भी सुलभ होनी चाहिए। जब मैंने उनसे यह निवेदन किया, तो उन्होंने मुझे ही यह दायित्व सौंप दिया, ‘‘तुम्हीं क्यों नहीं इसका अनुवाद कर लेते ?’’
अनुवाद सदैव मौलिक लेखन से कठिन तथा जोखिम भरा होता है। लेखों का अनुवाद तो किसी हद तक संभव भी है किंतु व्याख्यानों का अनुवाद अत्यंत कठिन है। ‘प्रतिष्ठित भारतीय’ के सभी आलेख किसी-न-किसी संदर्भ में व्यक्त उद्गार हैं। जयंती, शताब्दी, प्रतिमा या चित्र अनावरण के अवसरों पर दिए गए व्याख्यानों में प्रकट विचार-गुंफन ने ही ‘प्रतिष्ठित भारतीय’ का आकार लिया है। इस संग्रह के व्यक्तियों में से अधिकांश के साथ डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी का निकट का संबंध रहा है, जिसके कारण उनके विचारों में आत्मीयता की झलक है। जैसे श्री गोविन्द बल्लभ पंत जी के संबंध में उनके विचार हैं—
‘‘मुझे 1937 में अपने कॉलेज के दिनों में पंत जी के संपर्क में आने का सुयोग मिला। तब मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश किया था। हम छात्र थे और उनके आगमन तथा पथ-प्रदर्शन की प्रतीक्षा करते रहते थे। मुझे स्पष्ट रूप से स्मरण है कि वह जटिल विषयों को संक्षिप्त रूप से बता देते थे और तब वे सरल से लगने लगते थे। जो उनके पास आते उनसे बहुत कुछ सीख जाते। मुझे याद है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में अनेक विवादास्पद समस्याओं को वह सुलझा देते थे। उनके साथ बिताए गए क्षणों को मैं सदा सँजोएं रखूँगा। ऐसे महापुरुष से संपर्क रखना अति मूल्यवान था।’’
डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी स्वयं जिस कोटि के मनीषी हैं, उसे देखते हुए उनके विचारों और शब्दों को सही रूप में प्रस्तुत करना श्रमसाध्य होने के साथ ही चुनौती भरा काम भी था। मेरे इस प्रयास में डॉ. विशाल त्रिपाठी का वास्तविक श्रम और डॉ. कुशवाहा की सूक्ष्म दृष्टि है, जो मुख्य रूप से बधाई के पात्र हैं। श्री श्रीनिवासराव एस. सोहोनी व श्री जगन्नाथ कश्यप से समय-समय पर जो आवश्यक सहायता मिली है, उसे स्वीकारना मेरा कर्तव्य है।
अंत में यह भी स्पष्ट कर दूँ कि हम सब निमित्त मात्र हैं। वास्तविक श्रेय तो उनका ही है, जिनकी यह कृति है।
अंग्रेजी में ‘एमिनेंट इंडियंस’ नाम से उनकी जिस पुस्तक का प्रकाशन हुआ, उसे पढ़ते हुए मेरे मन में बार-बार यह बात आई कि यह पुस्तक हिंदी पाठकों के लिए भी सुलभ होनी चाहिए। जब मैंने उनसे यह निवेदन किया, तो उन्होंने मुझे ही यह दायित्व सौंप दिया, ‘‘तुम्हीं क्यों नहीं इसका अनुवाद कर लेते ?’’
अनुवाद सदैव मौलिक लेखन से कठिन तथा जोखिम भरा होता है। लेखों का अनुवाद तो किसी हद तक संभव भी है किंतु व्याख्यानों का अनुवाद अत्यंत कठिन है। ‘प्रतिष्ठित भारतीय’ के सभी आलेख किसी-न-किसी संदर्भ में व्यक्त उद्गार हैं। जयंती, शताब्दी, प्रतिमा या चित्र अनावरण के अवसरों पर दिए गए व्याख्यानों में प्रकट विचार-गुंफन ने ही ‘प्रतिष्ठित भारतीय’ का आकार लिया है। इस संग्रह के व्यक्तियों में से अधिकांश के साथ डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी का निकट का संबंध रहा है, जिसके कारण उनके विचारों में आत्मीयता की झलक है। जैसे श्री गोविन्द बल्लभ पंत जी के संबंध में उनके विचार हैं—
‘‘मुझे 1937 में अपने कॉलेज के दिनों में पंत जी के संपर्क में आने का सुयोग मिला। तब मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश किया था। हम छात्र थे और उनके आगमन तथा पथ-प्रदर्शन की प्रतीक्षा करते रहते थे। मुझे स्पष्ट रूप से स्मरण है कि वह जटिल विषयों को संक्षिप्त रूप से बता देते थे और तब वे सरल से लगने लगते थे। जो उनके पास आते उनसे बहुत कुछ सीख जाते। मुझे याद है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में अनेक विवादास्पद समस्याओं को वह सुलझा देते थे। उनके साथ बिताए गए क्षणों को मैं सदा सँजोएं रखूँगा। ऐसे महापुरुष से संपर्क रखना अति मूल्यवान था।’’
डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी स्वयं जिस कोटि के मनीषी हैं, उसे देखते हुए उनके विचारों और शब्दों को सही रूप में प्रस्तुत करना श्रमसाध्य होने के साथ ही चुनौती भरा काम भी था। मेरे इस प्रयास में डॉ. विशाल त्रिपाठी का वास्तविक श्रम और डॉ. कुशवाहा की सूक्ष्म दृष्टि है, जो मुख्य रूप से बधाई के पात्र हैं। श्री श्रीनिवासराव एस. सोहोनी व श्री जगन्नाथ कश्यप से समय-समय पर जो आवश्यक सहायता मिली है, उसे स्वीकारना मेरा कर्तव्य है।
अंत में यह भी स्पष्ट कर दूँ कि हम सब निमित्त मात्र हैं। वास्तविक श्रेय तो उनका ही है, जिनकी यह कृति है।
शंकर दयाल शर्मा
1
श्रीमती भीखाजी कामा
(24सितम्बर, 1861)
मैं भारत की इस वीरांगना की स्मृति को सम्मानपूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित
करता हूँ जिसकी स्वतंत्रता संग्राम में शानदार भूमिका को हम श्रद्धा और
कृतज्ञता से याद करते हैं।
24 सितंबर, 1861 को बंबई में जन्मी भीखाजी कामा के मन में 1857 जैसा जोश विद्यमान था। एक धनी परिवार की लाड़ली बेटी होने पर भी भीखाजी को विलासिता का जीवन प्रिय न था। वस्तुतः उनकी बेचैन आत्मा को बड़े कार्य करने का श्रेय मिलना था, इसलिए वह पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गईं। इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवनवाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया।
श्रीमती कामा का बहुत बड़ा योगदान साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था।
श्रीमती कामा जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में तिरंगा फहराने के लिए सुविख्यात हैं। बरसों बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘‘यह वही तिरंगा है जिसे उन्होंने फहराया था जिसमें कुछ परिवर्तन कर हमारे स्वाधीनता आंदोलनवालों ने स्वीकार कर लिया था।’’ यह झंडा कपड़े का एक टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर बहुत कुछ है। बापू ने कहा था, झंडा ‘आदर्श का द्योतक’ है। यह राष्ट्रीय मूल्यों तथा आकांक्षाओं का प्रतीक है। संघर्ष के दिनों में श्रीमती कामा के तिरंगे ने अगणित क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘‘हम इस झंडे को गर्व तथा उत्साह से ही नहीं देखते थे, बल्कि यह हमारी नसों में सनसनाहट पैदा कर देता है..जब कभी हम हतोत्साहित होते थे, तब इसके दर्शन मात्र से ही हमें आगे बढ़ने का साहस प्राप्त होता था।’’
वस्तुतः श्रीमती कामा ने विचारशील लोगों के हृदयों में आदर्शवाद तथा दृढ़ विश्वास का साहस भरने की असाधारण प्रतिभा थी। वह इसे अनेक प्रकार से प्रदर्शित करती थीं—अपने व्यक्तित्व एवं बलिदान के प्रभाव से, अपने जोशीले भाषण तथा भारत के उज्जवल भविष्य के प्रति दृढ़ आस्था के बल पर। उन्होंने घोषित किया था, ‘‘जीवन में मेरी एकमात्र इच्छा अपने देश को स्वतंत्र तथा संगठित देखने की है।’’
उन्होंने स्वभावतः बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल तथा लाला लाजपत राय को ठोस सहायता प्रदान की। अपने जोशीले भाषणों से उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करने की चेष्टा की। उनके भाषणों में भारत की समृद्ध परंपरा पर गर्व की भावना प्रकट होती है। उन्होंने कहा था, ‘‘हम अंग्रेजी शासन नहीं चाहते। हम अपना देश वापस चाहते हैं। भारत में किसी प्रकार के अंग्रेजी प्रभाव की आवश्यकता नहीं है। हमारी अपनी महान परंपरा है। हम अंग्रेजी सभ्यता की नकल नहीं करना चाहते। श्रीमान्, हम सब कुछ अपना ही चाहेंगे जो अधिक उच्च तथा महान है।’’ वह कहा करती थीं, ‘‘निरंकुशता का विरोध ईश्वर की आज्ञा का पालन है।’’
1907 में अंग्रेज सरकार ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दमन की पचासवीं जयंती मनाने का निश्चय किया। श्रीमती कामा के नेतृत्व में भारतीय क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीय भावनाओं को ठेस पहुँचानेवाले इस प्रयत्न को प्रभावहीन करने का निश्चय किया। वह श्रीमती कामा और अंग्रेजों के बीच एक बड़े मुकाबले की शुरूआत थी, जिसकी चरम परिणति तब हुई जब अंग्रेज सरकार ने लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को बिना मुकदमा चलाए ही लाहौर निर्वासित कर दिया था और श्रीमती कामा ने इस निरंकुश कार्य की निंदा करते हुए अनेक विदेशी समाचार-पत्रों में अपील जारी की थी। वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचार-पत्र ‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ में प्रकट करती थीं। श्रीमती कामा की लड़ाई दुनिया-भर के साम्रज्यवाद के विरुद्ध थी। वह भारत के स्वाधीनता आंदोलन के महत्त्व को खूब समझती थीं, जिसका लक्ष्य संपूर्ण पृथ्वी से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त करना था।
उनके सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ मानते थे; जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात् महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे।
यूरोप के समाजवादी समुदाय में श्रीमती कामा का पर्याप्त प्रभाव था। यह उस समय स्पष्ट हुआ जब उन्होंने यूरोपीय पत्रकारों को अपने देश-भक्तों के बचाव के लिए आमंत्रित किया। वह ‘भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन’ के नाम से विख्यात थीं। फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया। यह इस तथ्य की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी कि श्रीमती कामा का यूरोप के राष्ट्रीय तथा लोकतांत्रिक समाज में विशिष्ट स्थान था।
यह उपयुक्त ही है कि भारत की इस वीर, आदर्शवादी तथा समर्पित बेटी के चित्र का अनावरण संसद् के केंद्रीय सभागार में हो रहा है। मुझे विश्वास है कि श्रीमती कामा का जीवन तथा स्वाधीनता के लिए उनकी निष्ठा आगामी वर्षों में अनेक देशभक्तों को प्रेरणा प्रदान करेगी।
2 अगस्त, 1989 को संसद् के केंद्रीय सभा में चित्र के अनावरण के अवसर पर दिए गए भाषण का अंश।
24 सितंबर, 1861 को बंबई में जन्मी भीखाजी कामा के मन में 1857 जैसा जोश विद्यमान था। एक धनी परिवार की लाड़ली बेटी होने पर भी भीखाजी को विलासिता का जीवन प्रिय न था। वस्तुतः उनकी बेचैन आत्मा को बड़े कार्य करने का श्रेय मिलना था, इसलिए वह पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गईं। इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवनवाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया।
श्रीमती कामा का बहुत बड़ा योगदान साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था।
श्रीमती कामा जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में तिरंगा फहराने के लिए सुविख्यात हैं। बरसों बाद श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘‘यह वही तिरंगा है जिसे उन्होंने फहराया था जिसमें कुछ परिवर्तन कर हमारे स्वाधीनता आंदोलनवालों ने स्वीकार कर लिया था।’’ यह झंडा कपड़े का एक टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर बहुत कुछ है। बापू ने कहा था, झंडा ‘आदर्श का द्योतक’ है। यह राष्ट्रीय मूल्यों तथा आकांक्षाओं का प्रतीक है। संघर्ष के दिनों में श्रीमती कामा के तिरंगे ने अगणित क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘‘हम इस झंडे को गर्व तथा उत्साह से ही नहीं देखते थे, बल्कि यह हमारी नसों में सनसनाहट पैदा कर देता है..जब कभी हम हतोत्साहित होते थे, तब इसके दर्शन मात्र से ही हमें आगे बढ़ने का साहस प्राप्त होता था।’’
वस्तुतः श्रीमती कामा ने विचारशील लोगों के हृदयों में आदर्शवाद तथा दृढ़ विश्वास का साहस भरने की असाधारण प्रतिभा थी। वह इसे अनेक प्रकार से प्रदर्शित करती थीं—अपने व्यक्तित्व एवं बलिदान के प्रभाव से, अपने जोशीले भाषण तथा भारत के उज्जवल भविष्य के प्रति दृढ़ आस्था के बल पर। उन्होंने घोषित किया था, ‘‘जीवन में मेरी एकमात्र इच्छा अपने देश को स्वतंत्र तथा संगठित देखने की है।’’
उन्होंने स्वभावतः बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल तथा लाला लाजपत राय को ठोस सहायता प्रदान की। अपने जोशीले भाषणों से उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करने की चेष्टा की। उनके भाषणों में भारत की समृद्ध परंपरा पर गर्व की भावना प्रकट होती है। उन्होंने कहा था, ‘‘हम अंग्रेजी शासन नहीं चाहते। हम अपना देश वापस चाहते हैं। भारत में किसी प्रकार के अंग्रेजी प्रभाव की आवश्यकता नहीं है। हमारी अपनी महान परंपरा है। हम अंग्रेजी सभ्यता की नकल नहीं करना चाहते। श्रीमान्, हम सब कुछ अपना ही चाहेंगे जो अधिक उच्च तथा महान है।’’ वह कहा करती थीं, ‘‘निरंकुशता का विरोध ईश्वर की आज्ञा का पालन है।’’
1907 में अंग्रेज सरकार ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दमन की पचासवीं जयंती मनाने का निश्चय किया। श्रीमती कामा के नेतृत्व में भारतीय क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीय भावनाओं को ठेस पहुँचानेवाले इस प्रयत्न को प्रभावहीन करने का निश्चय किया। वह श्रीमती कामा और अंग्रेजों के बीच एक बड़े मुकाबले की शुरूआत थी, जिसकी चरम परिणति तब हुई जब अंग्रेज सरकार ने लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को बिना मुकदमा चलाए ही लाहौर निर्वासित कर दिया था और श्रीमती कामा ने इस निरंकुश कार्य की निंदा करते हुए अनेक विदेशी समाचार-पत्रों में अपील जारी की थी। वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचार-पत्र ‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ में प्रकट करती थीं। श्रीमती कामा की लड़ाई दुनिया-भर के साम्रज्यवाद के विरुद्ध थी। वह भारत के स्वाधीनता आंदोलन के महत्त्व को खूब समझती थीं, जिसका लक्ष्य संपूर्ण पृथ्वी से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त करना था।
उनके सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ मानते थे; जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात् महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे।
यूरोप के समाजवादी समुदाय में श्रीमती कामा का पर्याप्त प्रभाव था। यह उस समय स्पष्ट हुआ जब उन्होंने यूरोपीय पत्रकारों को अपने देश-भक्तों के बचाव के लिए आमंत्रित किया। वह ‘भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन’ के नाम से विख्यात थीं। फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया। यह इस तथ्य की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी कि श्रीमती कामा का यूरोप के राष्ट्रीय तथा लोकतांत्रिक समाज में विशिष्ट स्थान था।
यह उपयुक्त ही है कि भारत की इस वीर, आदर्शवादी तथा समर्पित बेटी के चित्र का अनावरण संसद् के केंद्रीय सभागार में हो रहा है। मुझे विश्वास है कि श्रीमती कामा का जीवन तथा स्वाधीनता के लिए उनकी निष्ठा आगामी वर्षों में अनेक देशभक्तों को प्रेरणा प्रदान करेगी।
2 अगस्त, 1989 को संसद् के केंद्रीय सभा में चित्र के अनावरण के अवसर पर दिए गए भाषण का अंश।
2
महात्मा गाँधी
(2 अक्टूबर, 1869)
बापू को शहीद हुए चालीस वर्ष बीत गए। यह दिन आत्मनिरीक्षण का है, मौन
सामूहिक प्रार्थना का दिन है तथा महान राष्ट्रीयता की महानता और समस्त
मानवता के लिए सार्वकालिक उच्चादर्शों के चिंतन का दिन है। संविधान सभा
में 2 फरवरी, 1948 को अपने भाषण में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बापू के विषय
में कहा था, ‘‘वह संभवतः, भारत के अतीत के सबसे बड़े
प्रतीक
थे और मैं कहूँ कि भारत के भविष्य के।...हम उनकी प्रशंसा करने योग्य नहीं
हैं। केवल शब्दों द्वारा उनका स्तवन उनके प्रति अन्याय है, जबकि वह हमसे
कर्म, श्रम तथा बलिदान की अपेक्षा रखते थे....। उनके द्वारा प्रदर्शित
मार्ग पर चलकर किया कार्य, श्रम तथा बलिदान ही आज उनके चरणों पर अर्पित
उपयुक्त श्रद्धांजलि है।’’
राष्ट्रपिता की इस मूर्ति को प्रदान करने की सद्भावना-प्रदर्शन के लिए मुझे सोवियत संघ की जनता के प्रति आभारी होना चाहिए। उस महान राष्ट्र के साथ हमारी मित्रता के संबंधों का यह एक और प्रतीक है, एक ऐसा राष्ट्र जिसने महात्मा गांधी द्वारा स्थापित मूल्यों तथा विश्व के मामलों में मानवतावादी शक्तियों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए बापू की सराहना की है। महान लेनिन ने स्वयं मानवता के लिए गांधीजी के महत्त्व की प्रशंसा की थी और भारत की जनता पर उनके नेतृत्व की शक्ति तथा स्वरूप पर आश्चर्य प्रकट किया था।
जवाहरलालजी ने कहा था, ‘‘महान तथा अग्रणी लोगों के काँसे तथा संगमरमर के स्मारक हैं, परंतु दैवी उत्साह से भरे इस व्यक्ति ने अपने जीवन-काल में ही लाखों हृदयों में बसने की सफलता पा ली...’’
चालीस वर्ष बीत गए हैं और उसके साथ ही महात्मा गांधी के जीवन तथा कार्यों की प्रासंगकिता लाखों गुनी बढ़ गई है।
--------------------------------------------------30 जनवरी, 1988 को गांधी दर्शन परिसर, नई दिल्ली में गांधीजी की प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर दिए गए भाषण से।
राष्ट्रपिता की इस मूर्ति को प्रदान करने की सद्भावना-प्रदर्शन के लिए मुझे सोवियत संघ की जनता के प्रति आभारी होना चाहिए। उस महान राष्ट्र के साथ हमारी मित्रता के संबंधों का यह एक और प्रतीक है, एक ऐसा राष्ट्र जिसने महात्मा गांधी द्वारा स्थापित मूल्यों तथा विश्व के मामलों में मानवतावादी शक्तियों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए बापू की सराहना की है। महान लेनिन ने स्वयं मानवता के लिए गांधीजी के महत्त्व की प्रशंसा की थी और भारत की जनता पर उनके नेतृत्व की शक्ति तथा स्वरूप पर आश्चर्य प्रकट किया था।
जवाहरलालजी ने कहा था, ‘‘महान तथा अग्रणी लोगों के काँसे तथा संगमरमर के स्मारक हैं, परंतु दैवी उत्साह से भरे इस व्यक्ति ने अपने जीवन-काल में ही लाखों हृदयों में बसने की सफलता पा ली...’’
चालीस वर्ष बीत गए हैं और उसके साथ ही महात्मा गांधी के जीवन तथा कार्यों की प्रासंगकिता लाखों गुनी बढ़ गई है।
--------------------------------------------------30 जनवरी, 1988 को गांधी दर्शन परिसर, नई दिल्ली में गांधीजी की प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर दिए गए भाषण से।
3
गोविंद बल्लभ पंत
(10 सितंबर, 1887)
मुझे सन् 1937 में पंतजी के संपर्क में आने का तब सुअवसर मिला जब मैं लखनऊ
विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। तब हम छात्र थे और उनके आगमन तथा
पथ-प्रदर्शन की प्रतीक्षा करते रहते थे। मुझे स्पष्ट रूप से स्मरण है कि
वह जटिल विषयों को संक्षिप्त रूप में बता देते थे और फिर भी वे सरल लगते
थे। जो भी उनके पास जाते, वे उनसे बहुत कुछ सीख जाते थे। मुझे याद है कि
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में अनेक विवादास्पद को मैं सदा सँजोए रखूँगा।
ऐसे महापुरुष से संपर्क रखना अति मूल्यवान शिक्षा थी।
पंतजी जीवन में उच्च आदर्शों तथा चिरस्थायी मानव मूल्यों के पक्षधर थे। एक कुशल नेता, राजनीतिज्ञ तथा भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले प्रथम पंक्ति के स्वतंत्रता-सेनानी के रूप में उनकी महानता सर्वविदित है। सन् 1923 में उत्तर प्रदेश परिषद् में चुने जाने के दिन से पंतजी ने राष्ट्र के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सभाचातुरी में वह विशिष्ट थे। वह अत्यधिक प्रतिष्ठावाले देशभक्त थे, जिनके बलिदान ने हमारे राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध बनाया है। उनके जीवन की सरलता, निष्ठा, सत्यवादिता और राष्ट्र के पुननिर्माण के प्रति पूर्ण समर्पण का भी उतना ही महत्त्व है।
पंतजी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। सन् 1916 के बाद वह कुमायूँ पर्वतीय क्षेत्र की जनता के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। उन्होंने इस क्षेत्र के लोगों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। वह शिक्षा के क्रांतिकारी महत्त्व को समझते थे, और वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने तत्कालीन सरकार से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देने को कहा था। वस्तुतः उन्होंने तो यह प्रस्ताव तक रखा था कि प्राथमिक स्तर तक के बच्चों को पुस्तकें तथा अन्य सामग्री भी मुफ्त दी जाए। तब 1920 के दशक में सरकार के सामने काशीपुर में व्यावसायिक विद्यालय खोलने का प्रस्ताव भी सर्वप्रथम उन्होंने ही रखा था और उनके प्रयत्न से व्यावसायिक विद्यालय जल्दी खुल भी गया। पंतजी अस्पृश्यता के विरुद्ध लगातार लड़ते रहे। सच्चे गांधीवादी होने के नाते उन्होंने अल्मोड़ा के सभी लोगों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने का आंदोलन चलाया। परिणामतः उनके गतिशील नेतृत्व के बल पर 1932 में अल्मोड़ा का मुरलीमनोहर मंदिर समाज के सभी बारह वर्गों के लिए खोल दिया गया।
पंडित गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार तथा किसानों और ग्रामीण गरीबों को ऊपर उठाने के लिए भी बहुत दिनों तक याद किए जाएँगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने प्रमुख सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्त्ववाले उपायों द्वारा जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का सूत्रपात किया। उन्होंने कानून को लागू करने के लिए निष्पक्ष प्रशासन की स्थापना की और प्रगतिशील विकास के अनेक कार्यों को बढ़ावा दिया।
सभाचातुरी में पंतजी को सभी लोग दिलेर मानते थे। संसदीय व्यवहार तथा कार्यप्रणाली और प्रासंगिक कानूनों की बारीकियों तथा परंपराओं में उन्हें प्रवीणता प्राप्त थी। वह हर मामले का विस्तृत अध्ययन करने में विश्वास रखते थे और सदन की बहस में प्रभावोत्पादक ढंग से हस्तक्षेप करते थे। वह तीक्ष्ण तथा शीघ्र प्रत्युत्तर देने में विख्यात थे। वह विधेयकों तथा प्रस्तावों का सावधानी से अध्ययन करने के बाद तथ्यों तथा आँकड़ों को सुसंबद्ध करके अपने दृष्टिकोण को अकाट्य तर्कों के साथ प्रस्तुत करते थे। उनकी वाद-विवाद की असाधारण क्षमता, भाषा पर उनका अधिकार तथा ब्योरों पर उनकी पकड़ सभी को प्रभावित करती थी और इसीलिए वह भारत में अब तक हुए महानतम सभाचतुरों में से एक माने जाते हैं।
देशभक्ति तथा राष्ट्रीय कार्यों के प्रति गहरी निष्ठा के गुणों ने उन्हें महान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का असंदिग्ध नेता बना दिया था और वह बापू तथा जवाहर लालजी के विश्वत साथी बने।
जब पंडित जवाहरलाल नेहरू उन्हें केंद्र में गृहमंत्री के रूप में लाए, तो राज्यों के पुनर्गठन को पूरा कराने का कार्य पंतजी को सौंपा गया था यदि सरदार पटेल रजवाड़ों को भारत में मिलाने में सफल हुए, तो पंतजी ने राज्यों के पुनर्गठन के कार्य को अपनी दूरदृष्टि, ज्ञान, व्यवहार-कुशलता, धैर्य तथा निष्पक्षता से सम्पन्न किया। उनके विषय में किसी को भी संदेह न था कि राष्ट्रीय हित उनके लिए सर्वोपरि है। वस्तुतः वह महान भारतीय तथा सच्चे देशभक्त थे।
अनुगृहीत राष्ट्र ने उन्हें ‘भारतरत्न’ प्रदान किया।
पंतजी जीवन में उच्च आदर्शों तथा चिरस्थायी मानव मूल्यों के पक्षधर थे। एक कुशल नेता, राजनीतिज्ञ तथा भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले प्रथम पंक्ति के स्वतंत्रता-सेनानी के रूप में उनकी महानता सर्वविदित है। सन् 1923 में उत्तर प्रदेश परिषद् में चुने जाने के दिन से पंतजी ने राष्ट्र के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सभाचातुरी में वह विशिष्ट थे। वह अत्यधिक प्रतिष्ठावाले देशभक्त थे, जिनके बलिदान ने हमारे राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध बनाया है। उनके जीवन की सरलता, निष्ठा, सत्यवादिता और राष्ट्र के पुननिर्माण के प्रति पूर्ण समर्पण का भी उतना ही महत्त्व है।
पंतजी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। सन् 1916 के बाद वह कुमायूँ पर्वतीय क्षेत्र की जनता के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। उन्होंने इस क्षेत्र के लोगों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। वह शिक्षा के क्रांतिकारी महत्त्व को समझते थे, और वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने तत्कालीन सरकार से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देने को कहा था। वस्तुतः उन्होंने तो यह प्रस्ताव तक रखा था कि प्राथमिक स्तर तक के बच्चों को पुस्तकें तथा अन्य सामग्री भी मुफ्त दी जाए। तब 1920 के दशक में सरकार के सामने काशीपुर में व्यावसायिक विद्यालय खोलने का प्रस्ताव भी सर्वप्रथम उन्होंने ही रखा था और उनके प्रयत्न से व्यावसायिक विद्यालय जल्दी खुल भी गया। पंतजी अस्पृश्यता के विरुद्ध लगातार लड़ते रहे। सच्चे गांधीवादी होने के नाते उन्होंने अल्मोड़ा के सभी लोगों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने का आंदोलन चलाया। परिणामतः उनके गतिशील नेतृत्व के बल पर 1932 में अल्मोड़ा का मुरलीमनोहर मंदिर समाज के सभी बारह वर्गों के लिए खोल दिया गया।
पंडित गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार तथा किसानों और ग्रामीण गरीबों को ऊपर उठाने के लिए भी बहुत दिनों तक याद किए जाएँगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने प्रमुख सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्त्ववाले उपायों द्वारा जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का सूत्रपात किया। उन्होंने कानून को लागू करने के लिए निष्पक्ष प्रशासन की स्थापना की और प्रगतिशील विकास के अनेक कार्यों को बढ़ावा दिया।
सभाचातुरी में पंतजी को सभी लोग दिलेर मानते थे। संसदीय व्यवहार तथा कार्यप्रणाली और प्रासंगिक कानूनों की बारीकियों तथा परंपराओं में उन्हें प्रवीणता प्राप्त थी। वह हर मामले का विस्तृत अध्ययन करने में विश्वास रखते थे और सदन की बहस में प्रभावोत्पादक ढंग से हस्तक्षेप करते थे। वह तीक्ष्ण तथा शीघ्र प्रत्युत्तर देने में विख्यात थे। वह विधेयकों तथा प्रस्तावों का सावधानी से अध्ययन करने के बाद तथ्यों तथा आँकड़ों को सुसंबद्ध करके अपने दृष्टिकोण को अकाट्य तर्कों के साथ प्रस्तुत करते थे। उनकी वाद-विवाद की असाधारण क्षमता, भाषा पर उनका अधिकार तथा ब्योरों पर उनकी पकड़ सभी को प्रभावित करती थी और इसीलिए वह भारत में अब तक हुए महानतम सभाचतुरों में से एक माने जाते हैं।
देशभक्ति तथा राष्ट्रीय कार्यों के प्रति गहरी निष्ठा के गुणों ने उन्हें महान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का असंदिग्ध नेता बना दिया था और वह बापू तथा जवाहर लालजी के विश्वत साथी बने।
जब पंडित जवाहरलाल नेहरू उन्हें केंद्र में गृहमंत्री के रूप में लाए, तो राज्यों के पुनर्गठन को पूरा कराने का कार्य पंतजी को सौंपा गया था यदि सरदार पटेल रजवाड़ों को भारत में मिलाने में सफल हुए, तो पंतजी ने राज्यों के पुनर्गठन के कार्य को अपनी दूरदृष्टि, ज्ञान, व्यवहार-कुशलता, धैर्य तथा निष्पक्षता से सम्पन्न किया। उनके विषय में किसी को भी संदेह न था कि राष्ट्रीय हित उनके लिए सर्वोपरि है। वस्तुतः वह महान भारतीय तथा सच्चे देशभक्त थे।
अनुगृहीत राष्ट्र ने उन्हें ‘भारतरत्न’ प्रदान किया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book