चिन्मय मिशन साहित्य >> अपरोक्षानुभूति अपरोक्षानुभूतिस्वामी चिन्मयानंद
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आत्मा,परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही अपरोक्षानुभूति है। इस ग्रन्थ में इसी अवस्था को प्राप्त करने की विधि और उसमें सतत् स्थिर रहने का विधान बताया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आत्मा, परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही
‘अपरोक्षानुभूति’ है। इस ग्रन्थ में इसी अवस्था को प्राप्त
करने की विधि और उसमें सतत् स्थिर रहने का विधान बताया गया है।
अपरोक्षानुभूति की अवस्था तक पहुँचने के लिए भगवद्पाद ने इस ग्रन्थ में कुछ बातों पर विशेष बल दिया है। सब से प्रथम उन्होंने विचार करने की आवश्यकता बताई है और यह भी बताया है कि विचार कैसे किया जाये। यह जगत् किस प्रकार उत्पन्न हुआ, इसका कर्ता कौन है तथा इसका उपादान कारण क्या है ?
अन्त में निदिध्यासन के पन्द्रह अंग इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता है। उनके अन्तर्गत यम, नियम, त्याग, मौन, देशकाल, आसन, मूलवन्ध, देहसाम्य, नेत्रों की स्थिति, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और आते है। इनमें से अधिकांश पतंजलि योग के ही अंग है किन्तु आचार्य शंकर ने उनकी व्याख्या अपने ढंग से की है। उसमें अद्वैत वेदान्त की दृष्टि स्पष्ट दिखाई देती है।
अपरोक्षानुभूति की अवस्था तक पहुँचने के लिए भगवद्पाद ने इस ग्रन्थ में कुछ बातों पर विशेष बल दिया है। सब से प्रथम उन्होंने विचार करने की आवश्यकता बताई है और यह भी बताया है कि विचार कैसे किया जाये। यह जगत् किस प्रकार उत्पन्न हुआ, इसका कर्ता कौन है तथा इसका उपादान कारण क्या है ?
अन्त में निदिध्यासन के पन्द्रह अंग इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता है। उनके अन्तर्गत यम, नियम, त्याग, मौन, देशकाल, आसन, मूलवन्ध, देहसाम्य, नेत्रों की स्थिति, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और आते है। इनमें से अधिकांश पतंजलि योग के ही अंग है किन्तु आचार्य शंकर ने उनकी व्याख्या अपने ढंग से की है। उसमें अद्वैत वेदान्त की दृष्टि स्पष्ट दिखाई देती है।
भूमिका
भगवत्पाद आदि शंकराचार्य ने जीवों के उद्धार के लिए कई
दृष्टियों से
अनेक ग्रन्थ लिखे हैं- कुछ छोटे बड़े कुछ प्रारम्भिक हैं कुछ प्रौढ़।
‘अपरोक्षानुभूति’ भी उनका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
आत्मा,
परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही
‘अपरोक्षानुभूति’ है। यह जीवन की सर्वोच्च
पूर्णावस्था
है। इस ग्रन्थ में इसी अवस्था को प्राप्त करने की विधि और उसमें सतत्
स्थिर रहने का विधान बताया गया है। उसका निरुपण करने के बाद आचार्य आदेश
देते हुए इस प्रकार कहते हैं-
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