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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


लगता है...इस वार रणवीर ने जबरदस्त जाल बिछाया था...अब की बार असीमा क्या बहाना करेगी। रणवीर दबी-छिपी नजरों से असीमा की ओर देख ले रहा था। वह यह जानना चाहता था कि उसकी इस चाल की उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई है।...लेकिन वह ठीक से समझ न पाया।

असीमा के चेहरे पर, गुस्सा, अपमान, दुख या अभिमान का कोई भाव न था। ही, चेहरे पर एक तरह की कठोरता अवश्य आ गयी थी जैसा कि पत्थर की मूर्ति में होती है। वहाँ कोई भंगिमा नहीं थी...लाज की लालिमा नहीं थी, किसी तरह की फीकी या उदास तरलता भी नहीं थी...बस एक तरह बेजान कठोरता भर थी।

''ठीक है...चली जाऊँगी...'' और इतना कहकर असीमा कमरे से बाहर निकल गयी।

रणवीर अब थोड़ा-बहुत निश्चिन्त रह सकता था। असीमा ने जब एक बार कह दिया तो वह अपने वादे से कभी-पीछे नहीं हटेगी। अगर वह एक बार वहाँ चली गयी तो उसका काम जरूर हो जाएगा...रणवीर को इस बात का पक्का भरोसा है।

घोषाल साहब के साथ उसकी पुरानी जान-पहचान है, इस बात की आड़ में पति की नौकरी के लिए आवेदन करने का प्रस्ताव सुनते ही असीमा की आँखों में जो आग सुलग उठी थी-रणवीर ने उसे भी ताड़ लिया था...उस आग का रूप और रंग कैसा हो सकता है...उसे पहचानने में रणवीर से कोई गलती नहीं हो सकती। वह इतना बुद्ध भी नहा ह।

अपनी बदकिस्मती के चलते ही आज रणवीर की यह हालत है...वर्ना लिखाई-पढ़ाई में वह घोपाल से रत्ती भर कम नहीं। घोषाल भी तो एक ग्रेजुएट ही है।

बस...अपनी-अपनी तकदीर है।

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