कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
पद और पैसे वालों की तरफ
जलन से देखते रहने और किस्मत को कोसते रहने के सिवा इन काहिलों को कुछ आता
भी है?
...न
तो ये कोई मेहनत-मजूरी करेंगे...न तो इनमें कोई सोच-समझ होती है...और न ही
कोई जोड़-जुगाड़। बस...ले-देकर किस्मत का रोना रोते रहते हैं।
लेकिन
जो भी हो, असीमा को समय रहते समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना होगा। इतने दिनों
के बाद असीमा एक छोटा-सा अनुरोध लेकर घोषाल साहब के पास जाएगी तो वे उसे
अवश्य कृतार्थ करेंगे। मर्दों का स्वभाव कैसा होता है, कम-से-कम रणवीर तो
इतना जानता ही है।
घर-गिरस्ती
में रोज-रोज पैदा होने वाली मुश्किलें, रसोईघर और भण्डार में कुण्डली
मारकर बैठा अभाव जहाँ अट्टहास कर रहा होता है वहीं चारों ओर से 'नहीं
है'...'कुछ नहीं है' की लगातार सुनाई देने वाली देर सुनाई पड़ती है। लेकिन
एक तरफ रख दिये गये बक्से में तड़क-भड़क वाले कपड़े तो अब भी पड़े हैं। जेबर
वगैरह तो फिर भी और बड़ा आसानी से हाथ से निकल जाते हैं लेकिन कपड़े-लत्ते
उनके मुकाबले कहीं ज्यादा दिनों तक साथ देते हैं। तभी कहीं बाहर जाते हुए
मर्यादा की अब भी थोड़ी-बहुत रक्षा हो जाती है। इसीलिए असीमा सज-धजकर बाहर
निकल गयी।
और
जब लौटी... तो हाथ का बैनिटी को बिछावन के ऊपर फेंककर वहीं पलँग के एक
कौने पर बैठ गयी। उसे इस बात का भी खयाल न रहा कि पहले अपनी कीमती रेशमी
साड़ी को उतारकर ठीक से रख दे।
रणवीर
खिड़की के पास ही रखी बेंत की एक कुर्सी पर चुपचाप बैठा था। असीमा को बाहर
भेजने के बाद से ही वह बैचैनी, कुण्ठा, शर्म, उतावली और मन में न जाने
क्या-क्या लिए बैठा था। बाहर जाने की तैयारी के समय असीमा ने जिस तरद् की
कठोर चुप्पी ओढ़ ली थी उससे रणवीर अपने इतना भी साहस नहीं जुटा पाया था कि
वह आगे बढ़कर उसका हौसला बनाये रखे।
असीमा
के चले जाने के बाद वह अपने आपको समझा रहा था और अपनी सुरक्षा के लिए सारे
तर्क जुटा रहा था। रणवीर कभी ऐसा तो न था? क्या उसे उापने आत्म-सम्मान की
सुध नहीं थी? लेकिन वह करे भी तो क्या...? अभाव के चलते स्वभाव नष्ट हो
जाता है।
|