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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


रणवीर दो मिनट तक खामोश पड़ा रहा, यह जानने के लिए कि असीमा अपनी तरफ से क्या कहती-करती है? उफ...एक अजीब-सा सन्नाटा था। एक-एक मिनट एक घंटा जान पड़ रहा था। नहीं...अब नहीं सही जाएगी यह चुप्पी। इसलिए पौ मिनट तक इन्तजार करते रहने के बाद उसने कुर्सी को थोड़ा-सा घुमाया और फिर झटके के साथ बोल उठा, ''जैसा कि तुम्हारा डर था कहीं वही बात तो नहीं हुई? द्वारा वह रईस दोस्त तुम्हें पहचान नहीं पाया?''

असीमा उठ खड़ी हुई रणवीर के सामने तनकर। उसके होठों के कोने पर व्यंग्य भरी मुस्कान खेल रही थी...''भला...पहचान कैसे नहीं पाता? जिसने भी मुझे एक बार देख लिया है...वह भला कभी भूल सकता है मुझे?''

रणवीर ने असीमा की तरफ देखा...सिर से पाँव तक। असीमा का वह तेवर कोई नयी बात नहीं है, बस भूली हुई-सी लगती है। महीनों हो गये असीमा का मेकअप से सजा-सँवरा और निखरा ऐसा खूबसूरत चेहरा देखा नहीं था। और...एक खास अदा के साथ रेशम की साड़ी में लिपटी उसकी यह सुडौल काया।

क्या इससे रणवीर को खुशी हुई?

अगर ऐसा होता तो उसकी आँखें सुलग नहीं उठती इस तरह? उसने अपना हाथ पिछले तीन-चार दिनों से गालों पर उग आयी दाढ़ी पर यूँ ही फिराया। इसके बाद बड़ी मुश्किल से उगायी गयी हँसी के साथ बोला, ''मेरे ही हथियार से मेरा कल किये जा रही हो? तुम्हारे वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला आखिर? अपना उतरा चेहरा देख रही हो?''

''तो और क्या करूँ?'' असीमा ने जैसै बड़ी हेठी के साथ होठों को भींचते हुए कहा, ''दो सौ पचहत्तर रुपये की एक छोटी-सी नौकरी मिल भी गयी तो मारे खुशी के नाचने लगँ? कोई बात हुई?''

दो सौ पचहत्तर?

दो सौ पचहत्तर रुपये की नौकरी?

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