कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
रणवीर
को उसकी पिछली नौकरी में भी कभी इतनी रकम नहीं मिलती थी। उसने बड़ी मुश्किल
से होठों पर आती हँसी को कुचलते हुए पूछा, ''बात क्या है?...सच कहा
तुमने...तुम मजाक तो नहीं कर रही हो?''
''मुझे क्या पड़ी है कि
मैं तुमसे मजाक करती रहूँ?''
रणवीर
के चेहरे पर एक तरह की निराशा और कातर आँखों में विचित्र लालसा-सी जाग उठी
थी। नौकरी मल गयी, इससे बड़ी खुशी की बात और क्या है भला? वैसे रुपये का
आँकड़ा अवश्य ही उतावली पैदा कर देने वाला था। और जैसा बताया गया था ठीक
वैसा ही हुआ। सचमुच, असीमा की अब भी कोई-न-कोई कीमत तो है। सिर्फ आँखों
में ही नहीं, उसके सारे शरीर में एक नामालूम-आँच है।...रणवीर को जैसे इस
बात की उम्मीद हो चली थी कि उसका काम नहीं होने वाला। और अगर बात बनी न
होती तो उसे कहीं ज्यादा खुशी होती।
ज्यादा-से-ज्यादा
यही होता कि कुछ और महीनों तक घर में दूध नहीं आता। बच्चों की देह पर उभर
आनेवाली ऊबड़-खाबड हड्डियाँ कुछ और नुकीली हो जाती।...यही होता न...
हां...हां,
बहुत कुछ हो जाता...अप्रिय और अनिष्टकर...लेकिन रणवीर अपनी ही आँखों में
इतना गिर तो न जाता। असीमा को जबरदस्ती बाहर भेज देने के पीछे जो ताकत काम
कर रही थी...वह किसी नौकरी पाने की आशा से नहीं बल्कि नौकरी
पाने और न कर पाने की
इच्छा से...।
लेकिन बात जो भी
हो...बताना तो चाहिए।
|