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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
घात
लगाकर जानना पड़ेगा कि इसके लिए उसे क्या-कुछ कहना-करना पड़ा...कौन-सी जुगत
भिड़ानी पड़ी। इस बीच अपने को तसल्ली देने का कोई बहाना मिल जाएगा।
''तो फिर जाते ही भेंट हो
गयी थी उससे?''
''मिलता नहीं तो में इतनी
जल्दी लौट कैसे आती?''
''मैंने तो सोचा था कि वह
ठहरा तुम्हारा पुराना दोस्त...तुम्हें जल्दी छोड़ेगा नहीं...रोके रखेगा।''
रणवीर
के धीरे-धीरे स्याह होते जाते मुँह की ओर आँखें फाड़कर देखते हुए असीमा ने
अपनी खनकती आवाज में कहा,''तुम्हारा सोचना कुछ गलत नहीं था। खाली और बीमार
दिमाग शैतान का कारखाना होता है... इस बात को तो बच्चे भी जानते हैं।''
रणवीर अचानक कुर्सी से उठ
खड़ा हुआ और उसे धमकाते हुए बोला, ''बातों-बातों में ही मत बहलाओ..वहाँ
क्या हुआ...ठीक से बताओ!''
लेकिन
असीमा न तो इस धमकी से तनिक भी विचलित हुई...और न ही उसके पाँव कँपे। उसने
बड़ी स्थिरता से आहिस्ता-आहिस्ता बताना शुरू किया...बड़े आराम से, ''इसमें
बताने को ऐसा है भी क्या? वहाँ गयी...सब कुछ बताया और बात बन गयी।
नियुक्ति-पत्र मिला और मैं कृतार्थ हो गयी। कल से ही जाना पड़ेगा।''
इतनी
जल्दी...नियुक्ति-पत्र मिल गया...कल से ही जाना पड़ेगा? मानो इतनी देर तक
वह किसी तपती और पिघलती राह से गुजरता हुआ उसे पीछे छोड़ आया था। ''काम
क्या है...इस बारे में तो मैं कुछ जान ही नहीं पाया। यह भी नहीं सोच पाया
कि काम मेरे लायक है भी या नहीं?...एकबारगी नियुक्ति-पत्र मिल गया...अगर
मैं कल न जाऊँ तो...?''
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