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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



रोगी की हालत बिगड़ उनाने पर लोग दूर-दराज से डॉक्टर बुलाने को दौड़ते हैं और केस बिगड़ जाता है तो उसकी पैरवी के लिए दूर-दूर से वकील और बैरिस्टर बुलाये जाते हैं। इसी तरह जब कस्बे के वकील से काम नहीं चला तो केशव राय ने कलकत्ता से एक वकील बुलाने की मन में ठान ली। लेकिन उन्हें कोड भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं कर पाया। कदम के साथ राघव राय का विवाह वैध साबित हो चुका था और ऐसा लग रहा था कि इस अबला विधवा और नाबालिग बच्चे के मामले में अदालत का रवैया सौ फसिदी सहानुभूतिपूर्ण है।

अदालती सहानुभूति बटोर लेने में कदम की ओर से जरा-सी भी कोताही नहीं हुई। अदालत में हाजिर होने के दिन वह सोडा लेकर अपने सिर के बाल धोती...कोई मटमैली-सी साड़ी पहनती और चेहरे का हाव-भाव, जहाँ तक सम्भव था, ड्तना कातर ओर दयनीय बना लेती थी कि फिर कुछ बताने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी।

'जब तक साँस...आस' वाली कहावत के मुताबिक ही केशव राय एक बड़े कानूनी सलाहकार की सलाह लेने गये थे। डेढ़ बजेवलिाए गाड़ी से वापस लौटे। उनका जी बुरी तरह खट्टा था।

इधर सुबह से ही...टिपर...टिपर...बारिश हो रही थी और आकाश बादलों से भरा था। स्टेशन पर उतरे तो पाया कि वारिश और तेज हो गयी है। आसमान वैसा ही भरा-पूरा था। उन्होंने यह बताया नहीं था कि किस ट्रेन से लौटेंगे इसलिए स्टेशन पर गाड़ी का कोई इन्तजाम न था। उन्होंने सोचा, घर कोई खास टूर नहीं है, भाड़े पर गाड़ी नहीं लेंगे...पैदल ही चले जाएँगे। उन्हें इस घड़ी किसी की बात न तो अच्छी लग रही थी और न किसी के बारे में वह कुछ कहना-सुनना ही चाहते थे।

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