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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कहना
न होगा, यह कँगला और हरामजादा और कोई नहीं, कदम का पाँच साल का बेटा माणिक
लाल है। माणिक केशव राय के पूज्य पिताजी का पुत्र है लेकिन उसका जिक्र जब
कभी भी आ जाता है, केशव राय उक्त दोनों सभ्य और विशिष्ट विशेषण के सिवा और
शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। और अगर बात कदम की हो रही हो तो वे इन
दोनों शब्दों को ही स्त्रीलिंग में बदल दिया करते थे...बस। उन दोनों के
बारे में इन खूबसूरत गालियों के सिवा उनके होठों पर और कोई शब्द कभी आते
भी नहीं थे।
केशव
राय की पत्नी, जो ढेर सारे बेटे-बेटियों की माँ भी थी, मन-ही-मन सिहर उठी
थी...यह सब सुनते-सुनते। उसके होठों पर 'षाट...षाट...''1 अनायास ही आ गया
था। उसके बाद ठोढ़ी उठाकर बोली, ''मामले की हार-जीत के साथ यह मरने-मारने
की बात क्यों है?''
''क्यों
है...? है...तुम यह सब नहीं समझोगी। यह सब तुम्हारे मैके की ठिठोली नहीं
है। कचहरी और कठघरे में खड़े होकर तुम्हें अपना ऊँचा सिर नीचे भी नहीं करना
है,'' केशव राय तमककर बोलते।
''लेकिन तुम तो कह रहे थे
उनको कुछ लेना-देना नहीं है ?''
''अरे एक बार कह दिया
न...नहीं!'' और केशव राय आंखें लाल किये घर के आँगन में टहलने लगते।
''तो वे वकील और बैरिस्टर
न्याय-अन्याय के बारे में कुछ नहीं समझते बूझते...?''
''नहीं...नहीं
समझते-बूझते...स्साले...'' केशव राय जैसे फट पड़ते, ''जिस बात को समझती
नहीं हो उसमें अपनी टाँग मत घुसेड़ो। अब यही सोचकर अफसोस होता है कि जब वह
छोरा...कँगला पैदा हुआ था तब उस हरामखोर बुढ़िया धाय से कह-सुनकर और उससे
नमक चटवाकर मैंने मरवा क्यों नहीं डाला?''
फिर भी...जब तक साँस तब
तक आस।
बात चक्र रोग-बलायी की हो
या मुकद्दमे की।
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1. माँ पष्ठी के लिए लिया
जाने वाला नाम।
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