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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
|
पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
केशव
राय का घराना पिछली सात पीढ़ियों से मामला-मुकद्दमेबाज रहा है। और यही वजह
थी कि कदम की आसमान से टकरा जानेवाली हेठी से केशव राय के तन-बदन में आग
लग गयी थी। उन्हें कोई डर-वर नहीं था। लेकिन वक्त बदल गया है...कहते
हैं...कानून भी अब कमजोरों का ही पक्ष लेता है।
धीरे-धीरे
यह भी जान पड़ा कि केशव राय मामले की जितनी अनदेखी कर रहे थे और उसे जितना
रफा-दफा करना चाह रहे थे....बात बन नहीं पा रही थी। केस भी
आहिस्ता-आहिस्ता पेचीदा होता गया और इससे जुड़ी चीजें बद से बदतर होती चली
गयीं।
इधर
कदम का ममेरा भाई, उसका साला और उसका बहनोई किसी नाते-रिश्तेदार की तरह इस
गृहस्थी में आकर शामिल हो गये। इस युवक ने अभी-अभी कानून की पढ़ाई पूरी की
थी और वकालत शुरू की थी। अपनी तैयारी, उत्साह, हर काम में तेजी और
मुस्तैदी से इस पक्ष की ओंखों में वे बुरी तरह चुभते रहने लगे थे। घर का
बँटवारा तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन राघव राय के मरते-मरते चूल्हे-चौके
अलग हो गये थे। साथ ही खिड़की और दरवाजे की सहायता से ही दोनों फरीक के बीच
ऊँची दीवार खींचने का काम, जहाँ तक सम्भव था, लिया जा रहा था।
आजकल कचहरी से आते ही
केशव राय बिछावन पर लुढ़क जाया करते थे। इस गर्मी से वहीं जाते-आते उनके
सिर में दर्द हो जाया करता था।
''हां जी....आज क्या-क्या
हुआ?'' घरवाली छूटते ही पूछती।
''वह सब तुम नहीं समझोगी,
''केशव राय गम्भीर स्वर में कहते।
''कम-से-कम हार-जीत के
बारे में तो जान सकती हूँ...आखिर कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है?''
''जब
तक अन्तिम तौर पर फैसला नहीं हो जाता...यह सब कोई नहीं जान पाता। एक नया
जज आया है...धर्म का अवतार बनता है साला...बस...इसी बात का डर है। और अगर
वह कँगला...हरामजादा खून की उल्टी करके मर-मरा जाए तो हर तरफ से बात बन
जाए।'' इतना कहते-कहते केशव राय उठ जाते हैं।
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