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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
यह
बताने की जरूरत नहीं कि मलेरिया से आक्रान्त विधवा सास की मौत की खबर से
शक्तिपद को कोई खास झटका नहीं लगा था लेकिन प्रतिमा, जिसके कि मन-प्राण ही
उसकी माँ में अटके हों, इस संवाद को सुनकर वह कैसा हंगामा खड़ा करेगी, यह
सोचकर ही उसकी जान सूख रही थी।
उसके
दिमाग में सबसे पहली जो बात आयी थी, वह थी दफ्तर की चिन्ता। अब आज तो
दफ्तर जाना वैसे ही मुल्तवी हो गया। और यह बदनसीबी ही कही जाएगी कि आज ही
पहली तारीख भी है। शक्तिपद के दफ्तर में एक ऐसा बेहूदा नियम लागू है कि
अगर कोई कर्मचारी पहली तारीख को न आए तो सात तारीख के पहले उसे पिछले
महीने का वेतन नहीं मिलेगा। यह सब सोच-सोचकर उसकी रीढ़ में एक ठण्डी
सनसनी-सी दौड़ गयी थी।
और इन सारी परेशानियों के
बीच प्रतिमा को सँभालना।
प्रतिमा
का मिजाज वैसे ही उखड़ा-उखड़ा रहता है। अब इसके साथ अपनी माँ का शोक उसे और
भी तोड़ जाएगा। और यह सब देखकर तो उसकी हालत और भी पतली हो जाएगी।
प्रतिमा
को माँ की मृत्यु का शोक। और वह भी आकस्मिक। इन सारी बातों पर न जाने
क्या-क्या सोचते, विचार करते हुए इस भले आदमी की जैसे मति ही मारी
गयी....कि वह क्या करे, कग न करे?
नहीं....अभी नहीं। अभी वह
इस खबर के बारे में कुछ नहीं बताएगा। और इसके लिए अचानक जाकर समाचार देना
सम्भव नहीं।
इससे
तो अच्छा है कि वह चुपचाप खिसक जाए। वापस आकर जो होगा....सो होगा। यह कोई
बात हुई भला....अभी इस समय जबकि ऐसी भाग-दौड़ मची हुई है। नहीं....शक्तिपद
कहीं पागल तो नहीं हो गया। प्रतिमा की माँ के गुजर जाने की खबर पाकर भी
शक्तिपद दफ्तर चला गया....और यह बात भी प्रतिमा को बताने वाली है नहीं?
ऐसा नहीं होगा।
तो फिर।
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