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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
|
पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
तो
यह चिट्ठी जेब में डाल ले...कुछ इस तरह कि दफ्तर जाने की हबड़-तबड़ में
उसने गलती से इसे जेब में रख लिया और जब घर लौटा और कमीज उतारने लगा
तो....उस समय...
नहीं...यह भी बड़ा ज्यादती
होगी....बात जम नहीं रही।
वर्धमान
से आयी यह चिट्ठी पढ़कर और दिन भर जेब में रखकर पूरी निश्चिन्तता के साथ
क्या दफ्तर में काम किया जा सकता है? नहीं....यह तो और भी बड़ा अपराध
होगा....जिसे माफ नहीं किया जा सकता।
पिछले कई दिनों से
प्रतिमा यह पूछती रही थी कि इन दिनों चिट्ठी नहीं आ रही कोई।
काफी
देर तक सोचते रहने के बाद....अचानक उसके दिमाग में एक बात कौंध गयी....यह
हुई न बात....आखिर ड्तनी देर तक यह बात उसके दिमाग में क्यों नहीं आयी?
लो, इस बात का कग सबूत हैं भला, एक डाकिया उसके हाथ में कोई चिट्ठी दे भी
गया है या नहीं। यह डाकिया अक्सर बाहर से अन्दर खिड़की की तरफ चिट्ठियाँ
फेंक दिया करता है। आज भी वैसा ही करता....अगर शक्तिपद को उसने देखा नहीं
होता। शक्तिपद आज अगर एक मिनट पहले घर से निकल गया होता तो ऐसी नौबत नहीं
आती? फिर दुनिया भर की चिन्ताओं सै उसे इस तरह जूझना न पड़ता।
चलो। शक्तिपद भी वैसा ही
करेगा...बाहर वाली खिड़की की तरफ से हाथ बढ़ाकर चिट्ठी अन्दर फेंक देगा।
उसने
जैसा सोचा था....वैसा करने के पहले उसने फिर एक बार अच्छी तरह सोच लिया।
नहीं....लगता है इससे भी बात बनेगी नहीं। मोहल्ले में ढेर सारे लोग हैं,
किसी ने आते-सुनाते देख लिया तो....। वे क्या सोचेंगे....और जब इस खबर के
बारे में उन्हें पता चलेगा तो और बावेला मचेगा। वे सब क्या सोचेंगे? इससे
तो अच्छा है कि वह खुद घर के अन्दर जाकर ही खिड़की के नीचे चिट्ठी डाल आए।
यही ठीक रहेगा।
दबे
पाँव....चुपचाप आगे बढ़ता हुआ शक्तिपद घर की बैठक के सामने चला आया। और फिर
दम साधे खड़ा हो गया। इसी कमरे में तो डाकिया बाहर से चिट्ठियाँ फेंक जाता
है।
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