लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


आशापूर्णा देवी की आरम्भिक कहानियाँ द्वितीय महायुद्ध के दौरान लिखी गयी थीं। हालाँकि तब उनकी कहानियाँ किशोरवय के पाठकों के लिए होती थीं। प्रबुद्ध पाठकी के लिए जो पहली कहानी लिखी गयी थी वह 1937 ई. के शारदीया आनन्द बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था 'पत्नी को प्रेयसी'। नारी के इन दो अनिवार्य ध्रुवान्तों के बीच उठने वाले सवाल को पारिवारिक मर्यादा और बदलते सामाजिक सन्दर्भों में जितना आशापूर्णा देवी ने रखा है उतना सम्भवतः किसी ने भी नशे रखा है। इसके साथ ही अन्य असंख्य नारी पात्रों-माँ, बहन, दादी, मौसी, दीदी, बुआ, घर के और भी सदस्य, नाते और रिश्तेदार यहाँ तक कि नौकर-चाकर कीं मनोदशा का सहज और प्रामाणिक अंकन उनकी कहानियों में हुआ है कि वे सभी हमारे ही प्रतिरूप नजर आने लगते हैं।

अपनी छोटी-बड़ी कहानियों में आशापूर्णा ने जीवन के सामान्य एवं विशिष्ट क्षणों और ज्ञात-अज्ञात पीड़ाओं को वाणी दी है और वाणी से कहीं ज्यादा दृष्टि दी है। इसलिए उनकी कहानियाँ पात्र, संवाद या घटनाबहुल न होती हुई भी जीवन की किसी अनकही व्याख्या को व्यंजित करती हैं और इस रूप में उनकी अलग पहचान है। आज से ठीक पचास साल पहले जव उनका पहला कहानी संकलन 'जल और आगुन' 194० ई. में प्रकाशित हुआ था तो यह कोई नहीं जानता था कि बाँग्ला ही नहीं भारतीय कथा-साहित्य के मंच पर एक ऐसे सितारे का पदार्पण हुआ है जो लम्बे समय तक समाज की कुण्ठा और कुत्सा, संकट और संघर्ष, अप्सा और लिप्सा-सबको समेटकर सामाजिक सम्बन्धों के हर्ष और उत्कर्ष को नया आकाश देगा।

पिछले पचास-साठ वर्षों में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रेरणाओं, स्वतन्त्रता प्राप्ति, नयी-पुरानी सरकार, व्यवस्था परिवर्तन, नारी शिक्षा-स्वातन्स्प, कामकाजी महिलाएँ, नगरों का जीवन, मूल्य-संकट जैसे तमाम विषयौं से जूझने वाली हजारों-लाखों कहानियाँ लिखी और पढ़ी जाती रही हैं। इन सारी कहानियों ने सामाजिक दबावों और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के साथ-साथ पाठकों को एक नयी और निश्चित दिशा दी है। आशापूर्णा की कहानियाँ डस अर्थ में विशिष्ट और सजग हैं कि वे तमाम समस्याओं और छोटे-बड़े आन्दोलनों को पृष्ठभूमि के रूप में रखती हैं ताकि कहानियों की समसामयिकता बनी रहे। लेकिन उनका पहला और अन्तिम सत्य या लक्ष्य पात्र का आत्म-संघर्ष होता है-भले ही उसमें वह पराजित हो जाए। कहानियों के माध्यम से घटनाओं का स्थूल या सूक्ष्म अंकन फतवा या बयानबाजी नहीं होती। उनके पात्र अखबारी या चिकनी पत्रिकाओं के हैरतअंगेज कारनामों वाले पात्र नहीं होते-वें हमारे जीवन के अनखुले पृष्ठों और अनचीन्हे सन्दर्भों को खुलकर व्याख्यायित करते हैं। हम उन्हें पढ़कर अपने माहौल को और भी चौकस नजर से देखने लगते हैं। तब यह अनुभव होता है कि इस जानी-पहचानी दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारी नजरों से ओझल है। इस दृष्टि से यह अनजाना संसार अवश्य ही रहस्यपूर्ण है कि हमारी इकतरफा या एकांगी आंखें इस अनजाने परिवृत्त को उसकी समग्रता में समेट पाने को अक्षम हैं। स्वयं कहानीकार एक ही स्थिति को कई-कई पात्रों और वक्तव्यों से भरने और घूरने की कोशिश करता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book