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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


आशापूर्णा को विश्वविद्यालयी किताबों और ज्ञान-विज्ञान की दुनिया नहीं मिली। बचपन से ही, वे एक ऐसी अनजानी लेकिन जिज्ञासा और कौतूहल से भरी दुनिया का साक्षात्कार करती रही हैं, जो रोज एक नये रूप में-नये वातायन और वातावरण के साथ उनके सामने उपस्थित होता रहा और अपने अनोखे और अजूबे पात्रों का सँभार उनके लिए जुटाता रहा। लेकिन आशापूर्णा देवी ने चयन का अधिकार सुरक्षित रखा और एक स्त्री होने के नाते उन्होंने स्त्री पात्रों की मानसिकता, उसके नारी सुलभ स्वभाव, उसके दर्प दम्भ, द्वन्द्व और उसकी दासता और अन्यमनस्कता का चित्रण आरम्भ किया। अपने अनगिनत पात्राओं के संसार द्वारा आशापूर्णा ने सामान्य किन्तु अविस्मरणीय पात्रों का एक ऐसा समानान्तर एवं जीवन्त संग्रहालय तैयार किया है जिनकी अबाध और जटिल यात्रा का पथ गरीबी, शोषण, कोलाहल, उन्माद, प्रेम-फा-अवसाद से परिपूर्ण है लेकिन जीवन और परिवेश के बीच एक संवाद चलता रहता है।

अपने को एक विनम्र और तुच्छ साहित्य-साधिका मानने वाली आशापूर्णा देवी एक लम्बे और विवादास्पद साहित्यिक दौर की साक्षी रही हैं। मूल्यों का संकट और पीढ़ियों का टकराव जैसी समस्याओं को आशापूर्णा ने अपनी विचार वयस्कता से देखा है और अप्रिय निर्णय भी दिये हैं। उन्होंने इस बात की कभी परवाह नहीं की है कि किसी समझौते को तात्कालिक सन्दर्भ में उपयुक्त माना जाए और वाद में वह गलत, अन्यायपूर्ण या अनुपयुक्त सिद्ध हो जाए। लेकिन सारी स्थापनाएँ भारतीय परिवेश, मर्यादा और स्वीकृत पारिवारिक ढाँचे के अनुरूप होती हैं। वे समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री या दार्शनिकों की मुद्रा ओढ़कर बहुत आधुनिका या प्रगतिशील लेखिका होने का मुखौटा नहीं लगातीं। वे अपनी जमीन को और अपने सन्दर्भ को खूब अच्छी तरह जानती हैं लेकिन सम्बन्धों या सन्दर्भों की भावुकता को वे अन्यथा महत्त्व नहीं देतीं-जो कि बांग्ला के अधिकांश लेखकों की कमजोरी रही है। ऐसा नहीं है कि किशोर-प्रेम, विवाह-पूर्व प्रेम या विवाहेतर प्रेम-सम्बन्धों और इनके विभिन्न प्रतिरूपों पर उन्होंने नहीं लिखा है लेकिन डस वहाने जीवन भर किसी अभिशाप की छाया की तरह इन्हें ढोते रहने और समाज में विशिष्ट बने रहने का ढोंग उन्हें पसन्द नहीं।

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