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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कहना
न होगा, रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का, उन दिनों जैसा स्वाभाविक ही था, उनके
भी किशोर मन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा था। लेकिन बाद में समकालीन साहित्य और
भाववोध के तरह-तरह के दवावों और अनुरोधों कों सामना करना पड़ा और साहित्य
के संकल्प और सरोकार भी बदलते चले गये। सामाजिक, परिवेशगत और मनोवैज्ञानिक
परिवर्तनों के चलते साहित्यकारों का दायित्व बहुत बढ़ गया तै क्योंकि उसकी
सकारात्मक अवधारणाएँ ही साहित्य और समाज को नयी दिशा दे सकती हैं। लेखक का
अनुभव-वृत्त जितना समृद्ध हुआ है, उसकी संवेदनशीलता का आकाश बहुत छोटा हो
गया है। मानवीय संवेदना को जुगाये रखना आज बहुत जरूरी है। केवल विषय-वस्तु
के प्रति न्याय या निर्वाह से या पाठक वर्ग विशेष के लिए लिखते रहने से ही
उसके दायित्व की इतिश्री नहीं हो सकती। बदलते सामाजिक ऑर राजभौतिक माहौल
में, यह ठीक है कि अन्यान्य दवावों के चलते श्रेष्ठ साहित्यकार भी अपना
दायित्व बखूबी निबाह नहीं पा रहे लेकिन आशापूर्णा इससे निराश नहीं हैं।
उनका मानना है कि कोई 'जेनुइन' लेखक इस बात से आश्वस्त या कि सन्तुष्ट
नहीं हो सकता और अब सिर्फ साहित्य ही विरोध का एकमात्र हथियार
नहीं
रह गया। और न ही सामाजिक मनोरंजन या नैतिक मानदण्ड का। समाज के इस छटा रूप
को उजागर करने के साथ-साथ उसके सुष्ठु और श्रेष्ठ मानवीय संस्कार को बनाये
रखना भी बहुत जरूरी है। आशापूर्णा के शबों में ही, ''लम्बे समय तक
साहित्य-सृजन के दौरान ऐसा भी हुआ है कि हताशा और निराशा मिली है लेकिन
मैंने इस हास और पतन को जीवन का अन्तिम वक्तव्य कभी नहीं माना। मैं जानती
हूँ कि अतृप्ति के साथ-साथ पूर्णता भी है। यही समग्रता ही जीवन की रिक्तता
और तिक्तता को पूर्णता प्रदान करती है।''
आशापूर्णा
की स्त्री-पात्राओं के बारे में, विशेष तौर पर यह बताया जाता रहा है कि वे
न तो असामान्या हैं और न ही 'विधाता की अनन्य तुष्टि' हैं। तो फिर क्या
हैं? क्या लेखिका की मानस प्रतिमा? नहीं, वह भी नहीं। वे नितान्त और
एकान्त रूप से हमारे आस-पास की बहू बेटियाँ या माँ हैं। ऐसा नहीं है कि वे
पर्दे में होती हैं अन्तःपुर में कैद पडी रहती हैं या घर की चारदीवारी में
बन्द रहती हैं। पर लेखिका की कोशिश यही रहती है कि वे पुरुषों की बनायी
हुई दीवारों को तोडे और खुद को अपनी गुलामी से मुक्ता करें। इनका प्रमुख
स्वर सकारात्मक और विश्वसनीय विरोध है, तमाम सम्बन्धों की मर्यादा को
बनाये रखने के साथ-साथ। ऐसी कोई भी पात्रा प्रत्यक्ष रूप से अगर आगे नहीं
भी आती तो वह खुद अपने आपसे लड़ती है। उसकी यह लड़ाई व्यक्तिगत नहीं
होती...केवल पति...प्रेमी...भाई या बेटे के साथ नहीं लड़ी जाती...मर्दों की
निष्ठुर दुनिया के साथ लड़ी जाती है। लेखिका कहीं भी अपनी तरफ से
हस्तक्षेप नहीं करती। वह संकेत भर करती है। जीवन और कहानी का उतना ही
हिस्सा उनके लेखन का या कथा-न्यास का अंग बनता है, जितना कि प्रभाव के लिए
आवश्यक है। इसलिए ये कहानियाँ अपने संक्षेप या विस्तार में, संवाद या
विन्यास में छवियाँ प्रस्तुत करती हैं। उनका पक्ष स्पष्ट तौर पर उनके साथ
रहता है जो सम्बन्धों की जड़ता या एकरसता को तोड़ती हैं। लेकिन आधुनिका होने
के नाम पर उच्छृंखल या पारिवारिक मर्यादाओं की अनदेखी करने का न तो वे
प्रस्ताव करती हैं और न ही ऐसा कोई आयोजन करती हैं जिससे अपनी बात को एक
दलील के तौर पर कहना अधिक आसान हो। दरअसल आशापूर्णा की पात्राओं की दुनिया
विरोध या बनामवाद से कहीं अधिक अपने रचाव पर विशेष बल देती है। इन पात्रों
को पता है कि जो दुनिया उनके इर्द-गिर्द है, वह ठीक वैसी नहीं है, जैसी कि
दीख रही है। स्वयं पुरुष जाति उन संस्कारों और अधिकारों से वंचित है, जो
उन्हें मिलना चाहिए। अपनी कण्ठाओं, अक्षमताओं और दुर्बलताओं को जब वे अपनी
वामा या पत्नी पर आरोपित केरना चाहते हैं तो स्वाभाविक है इस अन्याय का
विरोध किया जाए। लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं किया जाता ताकि घर की
संरचना पुरुष केन्द्रित रहे और रूढ़िगत मर्यादा का पालन होता रहे।
आशापूर्णा मदों की इसी कुण्ठावृत्ति पर कुठाराघात करती हैं। सम्भव है,
इससे जितना कुछ प्रत्यक्ष तौर पर टूटता नजर आता है वह आकस्मिक तौर पर
वांछित न हो। लेकिन नारी का मनोवल और आत्म-गौरव जो अप्रष्फक्ष तौर पर
टूटने से वचा लिया जाता है, लेखिका का वही अभिप्रेत या वांछित वक्तव्य
होता है।
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