लोगों की राय
कहानी संग्रह >>
किर्चियाँ
किर्चियाँ
प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
|
पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
|
5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
|
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
खैर, वह इस शर्त पर कार
में बैठी कि उसे शाम के पाँच बजे तक घर जरूर पहुँचा दिया जाएगा।
''हां
बाबा...हां....,'' रेखा दी ने चुटकी ली, ''ओह....तेरा भी खम्भा बड़ा भारी
है रे....एकदम हिलता नहीं। मैं तो भगवान से यही मनाऊँगी कि अगले सात जनम
तक किसी वकील के पल्ले न बँधना पड़े। क्या रोब है-दाव है!''
नौकरानी को हजार तरह से
समझा-बुझाकर गायत्री घर से निकल पड़ी थी।
''आपको
ले जाने में जितनी मेहनत करनी पड़ा है गायत्री दीदी....इसके मुकाबले
गन्धमादन पर्वत को उठा ले आना कहीं ज्यादा आसान होता,'' अपनी सफलता पर खुश
होते हुए एक लड़के ने सस्ती चुहल की।
''वैसे
वीर हनुमानों के दल की क्षमता का पता तो चला,'' गायत्री ने फीकी मुस्कान
के साथ कहा। लेकिन उसके सीने के अन्दर जैसे बार-बार हथौड़ा पटकी जा रही
थी। उसे विश्वास था कि वह श्रीपति के आने के पहले ही घर लौट आएगी।
लेकिन उसका यह विश्वास भी
न जाने कब...कैसे जाता रहा!
ऐसा
ही होता है। 'सूखा राहत' के दुख से द्रवित ये महामानव जिस तरह से चौकड़ी
जमाये बैठे थे, उससे यह जान पाना मुश्किल न था कि वे सब अपने किसी दोस्त
की शादी में बाराती बनकर बैठे हैं। सबके सब अपनी-अपनी परिकल्पनाओं में
डूबे थे। हवाई मनसूबे...लाल झाडू-फानूस जैसे ढेरों कार्यक्रम जिनकी कोई
गिनती न थी। इसके बाद सब में कतर-ब्योंत। आखिरकार....शाम की काली छाया जब
और गहरा गयी तो गायत्री को खयाल आया कि पाँच तो कब के बज गये....पंचानवे
मिनट पहले।
गायत्री एकदम असहाय हो
गयी। वह उठ खड़ी हुई लेकिन चलने को तैयार होने के बावजूद पता नहीं और कितनी
देर होगी!
अगले दिन आने का वादा
लेकर ही सबने उसे छोड़ा।
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai