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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''घर पहुँचाने कौन जा रहा
है?'' रेखा दी ने पूछा।
जवाब में किसी ने कहा,
''अपने शिवाजी भाई गाड़ी लेकर तैयार हैं।"
शिवाजी।
यह कौन है भला? गायत्री को ऐसे किसी आदमी के बार में कुछ मालूम नहीं। क्या
पता वह इन लोगों की उमर का है या इनसे बड़ा और बुजुर्ग है। जो भी हो, यह
सब सोचकर गायत्री का कलेजा काँप गया। उसकी कहीं घनी मूँछ-दाढ़ी तो नहीं?
उसे मालूम है कि श्रीपति जब इन छोकरों को ही बर्दाश्त नहीं कर पाता तो इस
शिवाजी भैया को कितना झेल पाएगा?
एक तो शिवाजी और ऊपर से
भैया।
सोने
पर सोहागा! गायत्री ने बेचैनी भरे स्वर में पूछा, ''क्यों, तुममें से कोई
साथ क्यों नहीं चलता? उस भले आदमी को क्यों मेरी खातिर परेशान कर रहे
हो?'' हाय रे अनजाने और अनदेखे! गायत्री की बात खत्म होने के साथ ही बाहर
से एक लड़का आया और सामने खड़ा हो गया। जिसे थोड़ी देर पहले भले आदमी का जामा
पहनाया गया था उसने बताया कि जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, उसे दिन में दो
बार घर से ले आने और घर छोड़ आने का भार उसी पर है।
''आइए मैडम...।'' उसने
कहा, ''चिन्ता की कोई बात नहीं।''
उसने
तो बेधड़क अन्दाज में गायत्री से निश्चिन्त होकर चलने का अनुरोध किया।
लेकिन गायत्री की चिन्ता केवल उसकी भलमनसाहत को लेकर ही नहीं थी। बल्कि उस
परेशानी को लेकर थी जो भद्रता की आड़ में सामने आती है।
रेखा दी का जीवन सचमुच
कितना मुक्त है? उससे तो केवल ईर्ष्या ही की जा सकती है।
उसके
सामने गायत्री अपने जीवन के अपमानजनक पहलू पर भला खुलकर कैसे चर्चा कर
सकती है? उसे कैसे बता सकती है कि शिवाजी के साथ गाड़ी में अकेले जाने के
प्रस्ताव को सुनकर उस पर जैसे आसमान ही टूटकर गिर पड़ा है।
नहीं, यह सब उसे नहीं
बताया जा सकता। और आसमान के टूट पड़ने के भय को अपने मन से निकालकर वह बिना
कुछ बोले कार में जा बैठी।
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