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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''कल
आ रही है न तू?'' रेखा दी के इस सवाल को टाल जाना गायत्री के लिए बड़ा
मुश्किल था। उसने बनावटी गुस्से के साथ कहा, ''क्या होगा यहाँ आकर?
काम-काज तो कुछ होना नहीं है। ले-देकर वही अड्डेबाजी। मैं कल नहीं आ
रही।''
''न
आने पर आपको यूँ ही बखा दिया जाएगा?'' शिवाजी ने हँसकर कहा, ''सूखा राहत
के लिए जी-जान लड़ाने वालों को ठगना या ठेंगा दिखाना इतना आसान नहीं!''
गायत्री
को कोई अच्छा-सा उत्तर नहीं सूझ पड़ा। इसलिए वह चुप ही रही। उसकी मानसिकता
अभी इस तरह की नहीं थी कि शब्दों को ठीक से नाप-तौलकर और सहेजकर रख सके।
पता नहीं...आज भाग्य में
क्या वदा है। और शाम भी कम्बख्त वहीं ढलती है
जहाँ भूतराम का भय होता
है।
गाड़ी से उतरत-न-उतरते ही
वह श्रीपति के सामने खड़ी थी।
''रेखा
दी खुद पहुँचा गयी, ''ऐसा ही कोई बहाना बनाकर वह आज की इस यात्रा को
निरापद बना रखेगी...लेकिन इस बात की भी कोई गुंजाइश नहीं रही।
हालाँकि यह भी सच था कि
शिवाजी कोई दैत्य या दानव नहीं था। एक साधारण-सा युवक ही था। उम्र में
गायत्री से दो-चार महीने छोटा ही होगा।
श्रीपति
घर के सामने पैदल टहल रहा था। घर आते ही...उसने नौकरानी के मुँह से
गायत्री के गायब होने की सभी कहानी सुन रखी थी। और इसके बाद पिछले दो
घण्टों से वह पिंजरे में बन्द भूखे शेर की तरह चल रहा था। उसने न तो
हाथ-मुँह ही धोया था और न जलपान ही किया था।
''इस छोकरे को यार बनाकर
कहीं से पकड़ लायी?''
गायत्री कुछ समझ न पायी।
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