लोगों की राय
कहानी संग्रह >>
किर्चियाँ
किर्चियाँ
प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
|
पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
|
5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
|
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''एकदम लोटन कबूतर जैसा
लग रहा था।''
गायत्री
ने तब तक थोड़ा साहस बटोर लिया था...मन-ही-मन में। उसने तिनककर कहा, ''यह
क्या उल्टा-सीधा बके जा रहे हो! वह एक भला-सा लड़का है।''
''हां, एकदम दूध-पीता
बच्चा ही जान पड़ा। खैर...कहीं से आ रही हो ?''
'जहज़म
से...' गायत्री के मन में आया कि यही कह दे लेकिन वह बोल न पायी। श्रीपति
को कहाँ, कौन-सी बात खल गयी है, वही जाने। तभी उसने अपनी नाराजगी को
छिपाते हुए कहा, ''कुछ न पूछो। आज अचानक दोपहर को अच्छी-खासी मुसीबत गले आ
पड़ी। पहले से न कुछ कहा, न कुछ बताया और रेखा दी आ टपकीं...और फिर
जबरदस्ती गले पड़ गयीं। ढेरों बहाने बनाये कि टल जाएँ पर वे टस-से-मस हों
तब न...।''
''टालने
की इच्छा हो और गले पड़ी मुसीबत न टले...मैं ऐसा नहीं मानता,'' श्रीपति का
तेवर वैसा ही बना रहा, ''आखिर माजरा क्या था...जरा मैं भी तो सुनूँ। अचानक
रेखा दी के प्यार में ज्वार कहाँ से आ गया...बासी कढ़ी में उबाल की तरह।
आखिर कोई बात तो होगी?''
गायत्री ने खिन्नता
दिखायी।
''आखिर
तुम किसकी इजाजत से दर्जन भर छोकरों के साथ हाय... हाय... करती हुई घर से
बाहर निकल गयी?'' श्रीपति के स्वर में विषबुझा व्यंग्य था।
यह
ठीक है कि श्रीपति इस तरह के कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता था। और यह
भी सही है कि ऐसा कुछ कहने का मौका भी गायत्री ने उसे कभी नहीं दिया।
मौके-बे-मौके वह अपने मैके तक नहीं जाती। और न तो रास्ते पर आने-जाने वाले
रेड़ीवाले या फेरीवाले को ही कभी बुलाती है।
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai