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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इससे तो अच्छा था कि वह एक दुबली-पतली मरियल-सी औरत होती। श्रीपति

को इस डर से छुटकारा तो मिलता कि सारी दुनिया उसकी तरफ आँखें फाड़े या मुँह बाये देख रही है। और खुद गायत्री भी निश्चिन्त रहती।

मान लिया कि उसे चेचक हो जाए और उसका चेहरा मोटे-मोटे भद्दे दाग से भर जाए।

कड़...कड़...तकड़ंग..!

गायत्री की नितान्त अपनी दुश्चिन्ताओं के बीच तभी यह कैसा आघात हुआ।

कौन होगा?

शिवाजी ही होगा।

इस समय उसके सिवा और कौन होगा?

चेचक के दाग से कुरूप और हाड़-पंजर के रूप में कुत्सित हो जाने की तैयारी को स्थगित रखकर उसने जल्दी-जल्दी बालों पर कंघी फेरी और फिर पहनी हुई साड़ी उतारकर एक नयी डोरिया साड़ी निकाल ली। उसे पहनते-पहनते ही वह नीचे उतर आयी।

नौकरानी ने तब तक दरवाजा खोल दिया था।

सामने सिर्फ शिवाजी ही नहीं, रेखा दी भी खड़ी थी।

उन दोनों के सामने गायत्री को कहना था, 'मेरा जाना सम्भव नहीं। इसकी वजह यह है कि मेरे पति यह सब पसन्द नहीं करते।'

अगर उस समय गायत्री का गला भी काट दिया जाता तो क्या उसकी जुबान से यह बात निकलती।

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