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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
गायत्री
को देखा नहीं कि रेखा दी चालू हो गयी, ''अच्छा...तो अब जाकर महारानी की
नींद टूटी। वाह, क्या कहना है! दरवाजे की कुण्डी हिलाते-हिलाते मेरी कलाई
पर बल पड गये...हाय...। अब देखना है श्रीमती जी का चलने के बारे में क्या
इरादा है? चलोगी न!''
अच्छे
बच्चे की तरह सिर हिलाकर एक भोली मुस्कान के साथ गायत्री ने कहा, ''न जाने
पर तुम लोग मेरी जान को थोड़े न बख्श दोगी? दोपहर के समय थोड़ा आराम कर लेती
थी उससे भी हाथ धोना पड़ा। पता नहीं, कल कैसे लुटेरों का हमला हुआ?...कल
रात घर लौटी तो देखा बीवी की गैरहाजिरी में मियाँ का मिजाज ही उखड़ा हुआ
है। चाय नहीं पीनी, खाना नहीं खाऊँगा...तो.. नहीं चाहिए.. जरूरत
नहीं...यही सब नखरे-तिल्ले...। आज तो मेरी किस्मत में मार ही लिखी है। और
कुछ नहीं तो मुँह पर भड़ाम से दरवाजा ही बन्द हो जाएगा।''...गायत्री कह रही
थी और हँस-हँसकर दोहरी भी हुई जा रही थी।
''चलो...जो नसीब में लिखा
है...वह तो होकर रहेगा।''
गायत्री आगे बढ़ आयी और
बोली, ''सुखिया...दरवाजा बन्द कर ले...।''
लेकिन
इसी बन्द दरवाजे को खुलवाकर क्या वह इस घर के अन्दर आ पाएगी? या कि यह
दरवाजा इस जनम में फिर खुलेगा भी? श्रीपति क्या उसे दौबारा अपने घर में
घुसने भी देगा? क्या पता, उसे मारे-पीटे? इनमें से कुछ भी हो सकता है...सब
सम्भव है। उसकी नौकरानी की यह धारणा कि बड़े घर की बहू-बेटी की देह को कोई
हाथ नहीं लगाता, एकदम गलत है।
सिर्फ
एक दिन के लिए नहीं...या फिर अचानक किसी खास दिन के लिए नहीं...हर दिन
किसी-न-किसी बहाने भरी दोपहर को गायत्री घर से बाहर निकल जाएगी-गाने का
रियाज करने और करवाने। और अन्त में वह स्टेज पर सज-धजकर गाना गाएगी जिसे
सुनने के लिए वहीं हजारों लौग इकट्ठा होंगे।
इस बात पर भी श्रीपति का
दिमाग कैसे खराब न हो तो फिर किस बात के लिए हो।
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