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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
"भैया...।"
उसे
अपने पांवों के नीचे से जमीन खिसकती-सी लगी। आँखों के सामने अँधेरा-सा
छाने लगा।....वह क्या जवाब देगी...क्या बहाने जुटाएगी? वह भूपाल को धक्के
मारकर तो उनके पास नहीं भेज सकती।...खुद जाकर तो वह नौकरी माँगने से
रहा।....तो फिर क्या कहै....क्या करे?
क्या
वह भूपाल की बीमारी का बहाना बनाए? या फिर उनसे यह कह दे
कि....भैया....तुमको कुछ लिखकर बताना ही मेरी गलती थी।....उनकी तबीयत इन
दिनों काफी बिगड़ गयी है। आजकल वह काम नहीं कर पाएँगे।
क्या
सुनील भैया उसकी बात पर यकीन कर लेंगे। जो आदमी घर से बाहर निकल पड़ा है,
उसको बीमार बताना इस मौके पर एक तरह का मजाक या बात का बतंगड़ विलास ही तो
है। क्या उनकी नजर इस घर की बदहाली पर नहीं पड़ेगी?
भैया
के यहाँ आने पर, कनक में इतनी भी क्षमता नहीं है कि वह उन्हें एक कप चाय
तक पिला सके। क्या उसके भैया सुनील इस बात को नहीं समझते? ऐसा न होता तो
कभी-कभार जब इधर आना हुआ तो वे छूटते ही कह देते हैं, ''तू खानें-पीने का
कोई हंगामा खड़ा न करना कनक....। तुझे पता नहीं मेरा पेट...बड़ा ही अपसेट
है।'' इसके बाद भी क्या अब भी अपना सड़ा-गला अहंकार लेकर पड़ा रहेगा भूपाल
और क्या सुनील उसकी इस मानसिकता को समझ नहीं पाएगा।
वह क्या कहे भूपाल
को....और किन शब्दों में उसे बुरा-भला कहे? क्या वह भूपाल के बोरे में
जली-कटी सुनाकर उसे और भी जलील न करे?
''अरी कनक....कहो, है
रे....तू...कैसी है?''
भैया की स्नेहिल पुकार
कनक के सीने में हथौड़ी की चोट की तरह पडी।
''भैया?''
अपने फटे आँचल को समेट उसे अपनी साड़ी की तहों के बीच छुपाते हुए वह आगे
बढ़ आयी और बोली, ''अरे भैया...तुम! अबकी बार तो तुम बहुत दिनों के बाद
आये।''
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