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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''समय ही कहाँ मिल पाता है रे? और आजकल काम का इतना दबाव है कि...''। न आ पाने की वजह क्या हो सकती है, इस अपनी भलमनसाहत के नाते छुपाते हुए भी वह जाहिर थी। भूपाल के स्वभाव से उखड़कर ही सुनील भैया ने इन दिनों आना-जाना कम कर दिया है।

''क्या, आखिर काम इतना बढ़ कहां से गया?'' हालाँकि कनक को अपना यह सवाल खुद ही बेमतलब-सा जान पड़ा।

''अरे एक अफसर है...स्साला बम्बई जाकर जम गया है...! खैर, भूपाल को मेरी चिट्ठी तो मिली है न...?''

''तुम्हारी चिट्ठी?'' कनक जैसे आकाश से गिरी। तुमने उसे चिट्ठी भेजी थी?'' उसने हैरानी से पूछा।

''हां...रे...।'' सुनील ने आक्षेप भरे स्वर में पूछा, ''उसे नहीं मिली? तभी मुझे शक हो रहा था। तू देख रही है न...यह आजकल डाक की क्या हालत हो गयी है? दमदम से कलकत्ता...आखिर कितने दूर हैं दोनों...यही 15-2० किलोमीटर...और चिट्ठी आने में पाँच दिन लग जाएँगे?''

''छी...छी...। ' सुनील ने कुछ सोचते हुए फिर जोड़ा, ''परसों शाम को ही चिट्ठी डलवायी है न...! खैर...मैं जरा घूम-फिर आऊँ। और हमारे बाबू साहब कहां हैं...उनकी मति-गति फिरी है?''

''हां, भैया...और मैं भी यही बताना चाह रही थी....काफी भाग-दौड़ के बाद उन्हें एक काम मिला है...किसी बैंक में।''

''अच्छा...काम मिल गया है?'' सुनील की आँखें फटी रह गयीं...''भूपाल को नौकरी मिल गयी?''

''हां, भैया...उन्होंने किसी जान-पहचान वाले को बता रखा था-जिस दिन मैंने तुम्हें लिखा था। उस दिन तक तो बात बनी नहीं थी लेकिन दूसरे ही दिन उन्होंने आकर बताया कि काम मिल गया है।''

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