सदाबहार >> तितली तितलीजयशंकर प्रसाद
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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...
मैंने सोचा कि शहर तो मैं जाया ही करता हूँ। नया आलू और मटर वहाँ अच्छे दामों पर बेचकर कुछ पैसे भी लूँगा और बज्जो! जाडे में इस झोपड़ी में बैठे-बैठे रात को उन्हें भून कर खाने में कम सुख तो नहीं है! अभी एक कम्बल लेना जरूरी है।
तो बापू से कहते क्यों नहीं? वह तुम्हें ढाई रुपया दे देंगे।
उनसे कुछ माँगूँगा, तो यही समझेंगे कि मधुवा मेरा कुछ काम कर देता है, उसी की मजूरी चाहता है। मुझे जो पढ़ाते हैं उसकी गुरु-दक्षिणा मैं उन्हें क्या देता हूँ? तितली! जो भगवान करेंगे, वही अच्छा होगा।
अच्छा तो मधुबन! जाती हूँ। अभी बापू छावनी से लौटकर नहीं आये। जी घबराता है।
यह कहकर जब वह लौटने लगी, तो मधुवन ने कहा-अच्छा,फिर आज से मैं रहा मधुबन और तुम तितली। यही न?
दोनों की आँखें? एक क्षण के लिए मिलीं-स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान करने के लिए। मधुबन उठ खड़ा हुआ, तितली बाहर चली आई। उसने देखा, शैला और अनवरी चुपचाप खड़ी हैं! वह सकुच गई। शैला ने सहज मुस्कुराहट से कहा- तब तुम्हारा नाम तितली है क्यों?
हाँ-कहकर तितली ने सिर झुका लिया। आज जैसे उसे अकेले में मधुवन से बातें करते हुए समग्र संसार ने देखकर व्यंग में हँस दिया हो। वह संकोच में गड़ी जा रही थी। शैला ने उसकी ठोढी उठाकर कहा-लो यह पाँच रुपये तुम्हारे उस दिन की मजूरी के हैं।
मैं, मैं न लूंगी। बापू बिगड़ेंगे।
वह चंचल हो उठी। किन्तु शैला कब मानने वाली थी। उसने कहा- देखो इसमें ढाई रुपये तो मधुवन को दो दो, वह अपना खेत सींच ले और बाकी अपने पास रख लो। फिर कभी काम देगा।
अब मधुवन भी निकल आया था। वह विचार-विमूढ था, क्या कहे! तब तक तितली को रुपया न लेते देखकर शैला ने मधुबन के हाथ में रुपया रख दिया, और कहा-बाकी रुपया जब तितली माँगे तो दे देना। समझा न? मैं तुम लोगों को छावनी पर बुलाऊँ, तो चले आना।
दोनों चुप थे।
अनवरी अब तक तो चुप थी; किन्तु उसके हृदय ने इस सौहार्द को अधिक सहने से अस्वीकार कर दिया। उसने कहा-हो चुका,चलिये भी। धूप निकल आर्ड है।
शैला अनवरी के साथ घूम पड़ी। उसके हृदय में एक उल्लास था। जैंसे कोई धार्मिक मनुष्य अपना प्रात:कृत्य समाप्त कर चुका हो। दोनों धीरे-धीरे ग्राम-पथ पर चलने लगीं।
अनवरी ने धीरे से प्रसंग छेड़ दिया-मिस शैला! आपको इन दिहाती लोगों से बातचीत करने में बड़ा सुख मिलता है।
मिस अनवरी! सुख! अरे मुझे तो इनके पास जीवन का सच्चा स्वरुप मिलता है, जिसमें ठोस मेहनत, अटूट विश्वास और सन्तोष से भरी शांति हँसती-खेलती है। लन्दन की भीड़ से दबी हुई मनुष्यता में मैं ऊब उठी थी, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मैं दुख भी उठा चुकी हूँ। दुखी के साथ दुखी की सहानुभूति होना स्वाभाविक है। आपको यदि इस जीवन में सुख-ही-सुख मिला है तो...
नहीं-नहीं, हम लोगों को सुख-दुख जीवन से अलग होकर कभी दिखाई नहीं पड़ा। रुपयों की कमी ने मुझे पढ़ाया और मैं नर्स का काम करने लगी। जब अस्पताल का काम छोड़कर अपनी डाक्टरी का धन्धा मैंने फैलाया, तो मुझे रुपयों की कमी न रही। पर मुझे तो यही समझ पड़ता है कि मेहनत-मजूरी करते हुए अपने दिन बिता लेना, किसी के गले पड़ने से अच्छा है।
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