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तितली

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2058
आईएसबीएन :81-8143-396-3

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...

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हाथ-मुंह धोकर मुलायम तौलिये से हाथ पोंछती हुई अनवरी बड़े-से दर्पण के सामने खड़ी थी। शैला अपने सोफा पर बैठी हुई रेशमी रूमाल पर कोई नाम कसीदे से काढ़ रही थी। अनवरी सहसा चंचलता से पास जाकर उन अक्षरों को पढने लगी। शैला ने अपनी भोली त्राँखों को एक बार ऊपर: उठा था, सामने से सूर्योदय की पीली किरणों ने उन्हें धक्का दिया, वे फिर नीचे झुक गईं। अनवरी ने कहा-मिस शैला! क्या कुंवर साहब का नाम है?

जी-नीचा सिर किये हुए शैला ने कहा।

क्या आप रोज सबेरे एक रूमाल उनको देती हैं? यह तो अच्छी बोहनी है!-कहकर अनवरी खिलखिला उठी।

शैला को उसकी यह हँसी अच्छी न लगी। रात-भर उसे अच्छी नींद भी न आई थी। इन्द्रदेव ने अपनी माता से उसे मिलाने की जो उत्सुकता नहीं दिखलाई, उल्टे एक ढिलाई का आभास दिया, वही उसे खटक रहा था। अनवरी ने हँसी करके उसको चौंकाना चाहार किन्तु उसके हृदय में जैसे हँसने की सामग्री न थी?

इन्द्रदेव ने कमरे के भीतर प्रवेश करते हुए कहा-शैला! आज तुम टहलने नहीं जा सकीं? मुझ तो आज किसानों की बातों से छुट्टी न मिलेगी। दिन भी चढ़ रहा हैं। क्यों न मिस अनवरी को साथ लेकर घूम आओ!

अनवरी ने ठाट से उठकर कहा-आदाबअर्ज है कुँवर साहब! बड़ी खुशी से! चलिए न! आज कुँवर साहब का काम मैं ही करूँगी!

शैला इस प्रगल्भता से ऊपर न उठ सकी। इन्द्रदेव और अनवरी को आत्म-समर्पण करते हए उसने कहा-अच्छी बात है,चलिये। इन्द्रदेव बाहर चले गये। खेतों में अंकुरों की हरियाली फैली पड़ी थी। चौखूँटे,तिकोने, और भीवव कितने आकारों के टुकड़े, मिट्टी की मेड़ों से अलगाये हुए,चारों ओर समतल में फैले थे। वीच-बीच में आम, नीम और महुए के दो-एक पेड़ जैसे उनकी रखवाली के लिए खड़े थे। मिट्टी की सँकरी पगडंडी पर आगे शैला और पीछे- पीछे अनवरी चल रही थीं। दोनों चुपचाप पैर रखती हुई चली जा रही थीं। पगडंडी से थोड़ी दूर पर झोंपड़ी थी, जिस पर लौकी और कुंभडे की लतर बढ़ी थी। उसमें से कुछ बात करने का शब्द सुनाई पड़ रहा था। शैला उसी ओर मु़ड़ी। वह झोंपड़ी के पास जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा, मधुवा अपनी टूटी खाट पर बैठा हुआ बज्जो से कुछ कह रहा है। बज्जो ने उत्तर में कहा-तब क्या करोंगे मधुबन ! अभी एक पानी चाहिए। तुम्हारा आलू सोराकर ऐसा ही रह जायगा? ढाई रुपये के बिना! महंगू महतो उधार हल नहीं देगे? मटर भी सूख जायेगी!

अरे आज मैं मधुबन कहाँ से बन गया रे बज्जो! पीट दूंगा जो मुझे मधुवा न कहेगी। मैं तुझे तितली कहकर न पुकारूंगा। सुना न? हल उधार नहीं मिलेगा, महतो ने साफ-साफ कह दिया है। दस बिस्से मटर और दस बिस्से आलू के लिए खेत मैंने अपनी जोत में रखकर बाकी दो बीघे जौ-गेहूँ बोने के लिए उसे साझे में दे दिया है। यह भी खेत नहीं मिला, इसी की उसे चिढ़ है। कहता है कि अभी मेरा हल खाली नहीं है।

तब तुमने इस एक बीघे को भी क्यों नहीं दे दिया!

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