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तितली

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2058
आईएसबीएन :81-8143-396-3

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...

अभी धामपुर आये इन्द्रदेव और शैला को दो सप्ताह से अधिक न हुए थे। इंगलैण्ड से ही इन्द्रदेव ने शैला को हिन्दी से खूब परिचित कराया। वह अच्छी हिन्दी बोलने लगी थी। देहाती किसानों के घर जाकर उनके साथ घरेलू बातें करने का चसका लग गया था। पुरानी खाट पर बैठकर वह बड़े मजे में उनसे बातें करती, साड़ी पहनने का उसने अभ्यास कर लिया था-और उसे फबती भी अच्छी।

शैला और इन्द्रदेव दोनों इस मनोविनोद से प्रसन्न थे। वे गंगा के किनारे- किनारे धीरे-धीरे बात करते चले जा रहे थे। क़षक-बालिकाएँ बरतन माँज रही थीं। मल्लाहों के लड़के अपने डोंगी पर वैठे हुए मछली फ़ँसाने की कटिया तोल रहे थे। दो-एक बड़ी-बड़ी नावें, माल से लदी हुई, गंगा के प्रशांत जल पर धीरे- धीरे सन्तरण कर रही थीं। वह प्रभात था!

शैला। बड़े कुतूहल से भारतीय वातावरण में नीले आकाश, उजली धूप और सहज ग्रामीण शान्ति का निरीक्षण कर रही थी।-वह बातें भी करती जाती थी। गंगा की लहर से सुन्दर कटे हुए-बालू-के नीचे करारों में पक्षियों के एक सुन्दर छोटे-से झुंड को विचरते देखकर उसने उनका नाम पूछा!

इन्द्रदेव ने कहा- ये सुर्खाब हैं, इनके परों, का तो तुम लोगों के यहाँ भी उपयोग होता है। देखो, ये कितने कोमल है।

यह कहकर इन्द्रदेव ने दो-तीन गिरे हुए परों को उठाकर शैला के हाथ में दे दिया।

'फ़ाइन'।-नहीं-नहीं, माफ करो इन्द्रदेव! अच्छा, इन्हें कहूँ? कोमल। सुन्दर !-कहती हुई,शैला ने हँस दिया।

शैला! इनके लिए मेरे देश में एक कहावत है। यहाँ कें कवियों ने अपनी कविता में इनका बड़ा करुण वर्णन किया है।-गम्भीरता से इन्द्रदेव ने कहा। क्या?

इन्हें चक्रवाक कहते हैं। इनके जोड़े दिन-भर तो साथ-साथ घूमते रहते हैं, किन्तु संध्या जब होती है, तभी ये अलग हो जाते हैं। फिर ये रात-भर नहीं मिलने पाते।

कोई रोक देता है क्या?

प्रकृति, कहा जाता है कि इनके लिए यही विधाता का विधान है।

ओह। बड़ी कठोरता है।-कहती हुई शैला एक क्षण के लिए अन्यमनस्क हो गई।

कुछ दूर चुपचाप चलने पर इन्द्रदेव ने कहा-शैला। हम लोग नीम के पास आ गये। देखो, यही सीढ़ी है; चलो देखें, चौबे क्या कर रहा है।

पालना-नहीं-नहीं-पालकी तो पहुँच गई होगी इन्द्रदेव। यह भी कोई सवारी है? तुम्हारे यहाँ रईस लोग इसी पर चढ़ते हैं-आदमियों पर। क्यों? बिना किसी बीमारी के। यह तो अच्छा तमाशा है !-कहकर शैला ने हँस दिया।

अब तो बीमारी से बदले डाक्टर ही यहाँ पालकी पर चढते हैं शैला! लो, पहले तुम्ही सीढ़ी पर चढ़ो।

दोनों सीढ़ी पर चढ़कर बातें करते हुए बनजरिया में पहुँचे। देखते हैं, तो चौबेजी अपने सामान से लैस खडे हैं।

शैला ने हँसकर पूछा-चौबेजी। आप तो पालकी पर जायँगे?

मुझे हुआ क्या है। रामदीन को आज बिना मारे मैं न छोड़ूँगा। सरकार! उसने बड़ा तंग किया। मुझे गोद में उठाकर पालकी पर बिठाना था। छावनी पर चलकर उस बदमाश छोकरे की खबर लूँगा।

बुरा क्या करता था? मेरे कहने से वह बेचारा तो तुम्हारी सेवा करना चाहता था और तुम चिढ़ते थे। अच्छा, चलो तुम पालकी में वैठो।-इन्द्रदेव ने कहा।

फिर वही-पालकी में बैठो। क्या मेरा ब्याह होगा?

ठहरो भी, तुम्हारा घुटना तो टूट गया है न। तुम चलोगे कैसे?

तेल क्या था, बिल्कुल जादू! मेम साहब ने जो दवा का वक्स मेरे बटुए में रख दिया था-वही, जिसमें साबूदाना की-सी गोलियां रहती हैं-मैंने खोल डाला। एक शीशी गोली खा डाली। न गुड तीता न मीठा-सच मानिये मेम साहब। आपकी दवा मेरे-जैसे उजड्डो के लिए नहीं। मेरा तो विश्वास है कि उस तेल ने मुझे रातभर में चंगा कर दिया। मैं अब पालकी पर न चढूंगा। गाँव-भर में मेरी दिल्लगी राम-राम!!

शैला हँस रही थी। इन्द्रदेव ने कहा-चौबे! होमियोपैथी में बीमारी की दवा नहीं होती, दवा की बीमारी होती है। क्यों शैला!

इन्द्रदेव! तुमने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। नहीं तो इसकी हँसी न उड़ाते। अच्छा, चलो उस लड़की को तो बुलावें। वह कहाँ है? उसे कल कुछ इनाम नहीं दिया। बड़ी अच्छी लड़की है। झोंपड़ी में से टेकते हुए बुड्डा निकल आया। उसके पीछे बज्जो थी। शैला ने दौडकर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहने लगी-ओह तुम रात को चली आई, मैं तो खोज रही थी। तुम बडी नेक...!

बज्जो आश्चर्य से उसका मुँह देख रही थी।

इन्द्रदेव ने कहा-बुड्ढे। तुम बहुत बीमार हो न?

हाँ सरकार। मुझे नहीं मालूम था, रात को आप...

उसका सोच मत करो। तुम कौन कहानी कह रहे थे रात को बज्जो को क्या सुना रहे थे? मुझको सुनाओगे, चलो छावनी पर।

सरकार; मैं बीमार हूँ। बुड्ढा हूँ। बीमार हूँ।

शैला ने कहा- ठीक इन्द्रदेव, अच्छा सोचा। इस बुड्डे की कहानी बड़ी अच्छी होगी। लिवा चलो इसे। बज्जो। तुम्हारी कहानी हम लोग भी सुनेगे। चलो।

इन्द्रदेव ने कहा अच्छा तो होगा।

चौबेजी ने कहा-अच्छा तो होगा सरकार। मैं भी मधुवा को साथ लिवा चलूंगा। शायद फिर घुटना टूटे, तेल मलवाना पड़े और इन गायों को भी हाँक ले चलूं, दूध भी-सब हँस पडे; परन्तु बुड्ढा बड़े संकट मे पड़ा। कुछ बोला नहीं, वह एकटक शैला का मुँह देख रहा था। एक अपरिचित! जिससे परिचय बढ़ाने के लिए मन चंचल हो उठे। माया-ममता से भरा-पूरा मुख।

बुड्ढा डरा नहीं, वह समीप होने की मानसिक चेष्टा करने लगा।

साहस बटोरकर उसने कहा-सरकार! जहाँ कहिये, वहीं चलूँ।

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