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तितली

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2058
आईएसबीएन :81-8143-396-3

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...

3

चारो ओर ऊँचे-ऊँचे खम्भो पर लम्बे-चौड़े दालान, जिनसे सटे हुए सुन्दर कमरों में सुखासन, उजली सेज, सुन्दर लैम्प, बड़े-बड़े शीशे, टेबिल पर फूलदान अलमारियों में सुनहली जिल्दों से मढ़ी हुई पुस्तकें-सभी कुछ उस छावनी में पर्याप्त है।

आस-पास, दफ्तर के लिए, नौकरों के लिए तथा और भी कितने ही आवश्यक कामों के लिए छोटे-मोटे घर बने है। शहर के मकान में न जाकर, इन्द्रदेव ने विलायत से लौटकर यहीं रहना जो पसन्द किया है, उसके कई कारणों में इस कोठी की सुन्दर भूमिका और आस-यास का रमणीय वातावरण भी है। शैला के लिए तो दूसरी जगह कदापि उपयुक्त न होती।

छावनी के उत्तर नाले के किनारे ऊंचे चौतरे की हरी-हरी दूबों से भरी हुई भूमि पर कुर्सी का सिरा पकड़े तन्मयता से वह नाले का गंगा में मिलना देख रही थी। उसका लम्बा और ढीला गाउन मधुर पवन से आन्दोलित हो रहा था। कुशल शिल्पी के हाथों से बनी हुई संगमरमर की सौन्दर्य-प्रतिमा-सी वह बड़ी भली मालूम हो रही थी।

दालान में चौबेजी उसके लिये चाय बना रहे थे। सायंकाल का सूर्य अब लाल बिम्ब-मात्र रह गया था, सो भी दूर की ऊँची हरियाली के नीचे जाना ही चाहता है। इन्द्रदेव अभी तक नहीं आये थे। चाय ले आने में चौबेजी और सुस्ती कर रहे थे। उनकी चाय शैला को बड़ी अच्छी लगी। वह चौबेजी के मसाले पर लट्टू थी।  रामदीन ने चाय की टेबिल लाकर धर दी। शैला की तन्मयता भंग हुई। उसने मुस्कराते हुए,इन्द्रदेव से कुछ मधुर सम्भाषण करने के लिए, मुंह फिराया; किन्तु इन्द्रदेव को न देखकर वह रामदीन से बोली-क्या अभी इन्द्रदेव नहीं आते है? नटखट रामदीन हंसी छिपाते हुए एक आँख का कोना दबाकर ओठ के कोने को ऊपर चढ़ा देता था। शैला उसे देखकर खूब हंसती, क्योकि रामदीन का कोई उत्तर बिना इस कुटिल हँसी के मिलना असम्भव था! उसने अभ्यास के अनुसार आधा हँसकर कहा-जी, आ रहे हैं सरकार! बड़ी सरकार के आने की...

बड़ी सरकार?

हां, बड़ी सरकार! वह भी आ रही हैं। कौन है वह?

बड़ी सरकार-.

देखो रामदीन,समझाकर कहो। हँसना पीछे।

बड़ी सरकार का अनुवाद करने में उसके सामने बड़ी बाधाएँ उपस्थित हुई; किन्तु उन सबको हटाकर उसने कह दिया- सरकार की मां आई हैं। उनके लिए गंगा-किनारे वाली छोटी कोठी साफ़ कराने का प्रबन्ध देखने गये हैं। वहाँ से आते ही होंगे।

आते ही होंगे? क्या अभी देर है?

रामदीन कुछ उत्तर देना चाहता था कि बनारसी साड़ी का आँचल कंधे पर से पीठ की ओर लटकाये; हाथ में छोटा-सा बेग लिये एक सुन्दरी वहाँ आकर खड़ी हो गई। शैला ने उसकी ओर गम्भीरता से देखा। उसने भी अधिक खोजने वाली आँखों से शैला को देखा।

दृष्टि-विनिमय में एक-दूसरे को पहचानने की चेष्टा होने लगी; किन्तु कोई बोलता न था।

शैला बड़ी असुविधा में पड़ी। वह अपरिचित से क्या बातचीत करे? उसने पूछा-आप क्या चाहती हैं?

आने वाली ने नम्र मुस्कान से कहा-मेरा नाम मिस अनवरी है। क्या किया जाय, जब कोई परिचय करानेवाला नहीं तो ऐसा करना ही पड़ता है। मैं कुंवर साहेब की मां को देखने के लिए आया करती हूँ। आपको मिस शैला समझ लूं?

जी-कहकर शैला ने कुर्सी बढ़ा दी और शीतल दृष्टि से उसे बैठने का संकेत किया।

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