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तितली

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2058
आईएसबीएन :81-8143-396-3

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...

उधर चौबेजी चाय ले आ रहे थे। शैला ने भी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा-आपके लिए भी...

अनवरी और शैला आमने-सामने वैठी हुई एक-दूसरे को परखने लगीं। अनवरी की सारी प्रगल्भता धीरे-धीरे लुप्त हो चली। जिस गर्मी से उसने अपना परिचय अपने-आप दे दिया था, वह चाय के गर्म प्याले के सामने ठंढी हो चली थी।

शैला ने चाय के छोटे-से पात्र से उठते हुए धुएँ कों देखते हुए कहा-कुंवर साहब की माँ भी सुना, आ गई हैं?

मुझे तो नहीं मालूम, मैं अपनी मोटर से यहाँ उतर पड़ी थी। उनके साथ ही आती, पर क्या करूं, देर हो गई। किसी को पूंछ आने के लिए भेजिएगा? मुझे तो आपसे सहायता मिलनी चाहिए मिस अनवरी-शैला ने हँसकर कहा-आपके कुंवर साहब आ जायँ, तो प्रबन्ध...

अरे शैला! यह कौन...

इन्द्रदेव! तुम अब तक क्या कर रहे थे-कहकर शैला ने मिस अनवरी की ओर संकेत करते हुए कहा-आप मिस अनवरी...

फिर अपने होंठ को गर्म चाय में डुबो दिया,जैसे उन्हें हँसने का दण्ड मिला हो। इन्द्रदेव ने अभिनन्दन करते हुए कहा-माँ जब से आई, तभी से पूछ रही हैं, उनकी रीढ़ में दर्द हो रहा है। आपसे उनसे भेंट नहीं हुई क्या?

जी नहीं; मैंने समझा,यहीं होगी। फिर जब यहाँ चाय मिलने का भरोसा था, तो थोड़ा यही ठहरना अच्छा हुआ-कहकर अनवरी मुस्कराने लगी।

इन्द्रदेव ने साधारण हँसी हँसते हुए कहा- अच्छी बात है,चाय पी लीजिये। चौबेजी आपको यहीं पहुंचा देंगे।

तीनों चुपचाप चाय पीने लगे। इन्द्रदेव न कहा-चौबे आज तुम्हारि गुजराती चाय बड़ी अच्छी रही। एक प्याला औंर ले आओ,औंर उसके साथ और भी कुछ...

चौबे सोहन-पापड़ी के टुकड़े और चायदानी लेकर जब आये, तो मिस अनवरी उठकर खड़ी हो गई।

इन्द्रदेव ने कहा-वाह, आप तो चली जा रही हैं। इसे भी तो चखिए।

शैला न मुस्कराते हुए कहा-बैठिए भी,आप तो यहाँ पर मेरी ही मेहमान होकर रह सकेंगी।

हाँ, इसको तो मैं भूल गई थी-कहकर अनवरी बैठ गईं।

चौबेजी ने सबको चाय दे दी, और अब वह प्रतीक्षा कर रहे थे कि जब अनवरी चलेगी। पर अनवरी तो वहां से उठने का नाम ही न लेती थी। वह कभी इन्द्रदेव और कभी शैला को देखती, फिर सन्ध्या की आने वाली कालिमा की प्रतीक्षा करती हुई नीले आकाश से आँख लड़ाने लगती।

उधर इन्द्रदेव इस बनावटी सन्नाटे से ऊब चले थे। सहसा चौबेजी ने कहा- सरकार! वह बुड्ढा आया है, उसकी कहानी कब सुनिएगा? मैं लालटेन लेता आऊँ?

फिर अनवरी की ओर देखते हुए कहने लगे-अभी आपको भी छोटी कोठी में पहुँचाना होगा।

अनवरी को जैसे धक्का लगा। वह चटपट उठकर खड़ी हो गई। चौबेजी उसे साथ लेकर चले।

इन्द्रदेव ने गहरी साँस लेकर कहा-शैला!

क्या इन्द्रदेव?

माँ से भेंट करोगी?

चलूं?

अच्छा, कल सवेरे!

इन्द्रदेव की माता श्यामदुलारी पुराने अभिजात-कुल की विधवा हैं। प्राय: बीमार रहा करती हैं। किन्तु मुख-मंडल पर गर्व की दीप्ति, आज्ञा देने की तत्परता और छिपी हुई सरल दया भी अंकित है? वह सरकार हैं। उनके आस-पास अनावश्यक गृहस्थी के नाम पर जुटाई गई अगणित सामग्री का बिखरा रहना आवश्यक है। आठ से कम दासियों से उनका काम चल ही नहीं सकता। दो पुजारी और ठाकुरजी का सम्भार अलग। इन सबके आज्ञा-पालन के लिए कहारों का पूरा दल। बहँगी पर गंगाजल और भोजन का सामान ढोते हुए कहारों का आना-जाना-श्यामदुलारी की आँखें सदैव देखना चाहती थीं।

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