जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
शाम को यदि किरणमयी उदास बैठी रहती तो सुधामय कहते, 'किरण, तुम्हारे बाल उलझ गये हैं, आओ, मैं सुलझा दूँ। आज शाम को 'रमना भवन' में जाकर अपने लिए दो अच्छी साड़ियाँ खरीद लेना। तुम्हारे पास घर में पहनने लायक कपड़े नहीं हैं। किरण, मेरे पास यदि रुपये रहते तो तुम्हारे लिए एक बड़ा मकान बनवा देता। तुम उस घर के आँगन में खाली पैर घूमतीं और पूरे घर के आस-पास फल-फूल के पेड़-पौधे लगातीं। मौसमी सब्जी लगाती, फूल उगातीं। सेम की लता में सेम, लौकी के पौधे में लौकी, खिड़की के पास रातरानी। दरअसल, तुम ब्रह्मपल्ली के मकान में ही ऊँचती थीं। लेकिन मेरी समस्या क्या है, जानती हो? मैं रुपये कमाने की लाइन में गया ही नहीं। अगर चाहता तो रुपये न कमा पाता, ऐसी बात नहीं। मेरा मकान, मेरी सम्पदा को देखकर तुम्हारे पिता ने मुझ से तुम्हारी शादी की थी। वह घर अब नहीं रहा, न ही सम्पदा रही। काफी हद तक हैंड टु माउथ' जैसी स्थिति है। इस बात को लेकर मुझे कोई दुःख नहीं। शायद तुम्हें कष्ट होता है, किरण!'
किरणमयी समझती थी कि यह सरल, सीधा, निरीह व्यक्ति उसे बेहद प्यार करता है। किसी अच्छे इन्सान को प्यार करके यदि जीवन में छोटी-मोटी चीजों का त्याग करना पड़े, या फिर छोटा-मोटा ही क्यों, कोई बड़ा त्याग भी करना पड़े तो इसमें हानि ही क्या है? लेकिन मन में जो प्यार का एक समुद्र उफन रहा है, उसका पानी उसके शरीर की इस बीमारी को, व्यथा-वेदना को बार-बार धो डालता है।
सुरंजन ने रुपये दिये हैं। शायद कहीं से उधार लिया है। वह कमा नहीं सकता, इसलिए संभवतः एक हीन मानसिकता ढो रहा है। लेकिन अब भी किरणमयी की पीठ दीवार से सटी नहीं है। अब भी कुछ दिनों तक परिवार को खींचने लायक पैसे उसके पास हैं। सुधामय ने अपने पास कभी एक पैसा तक नहीं रखा। अपनी कमाई का पूरा पैसा किरणमयी के हाथ पर रख देते थे। इसके अलावा सोना-गहना भी अब तक कुछ बचा है। उसके पास । वह माया के हाथों सुरंजन को वह रुपया लौटाती है। किरणमयी समझ नहीं पायी थी कि रुपये वापस करने से उसे दुख होगा। अचानक कमरे में घुसकर सुरंजन ने कहा, 'सोच रही हो कि चोरी-डकैती करके रुपये लाया हूँ? या फिर बेरोजगार लड़के से पैसे लेने में तकलीफ होती है? मैं तुम लोगों के लिए कुछ कर नहीं सकता। लेकिन मेरी भी तो इच्छा होती है कुछ करने की। क्या तुम लोगों को यह नहीं समझना चाहिए था?'
किरणमयी चुपचाप बैठी रही। सुरंजन की एक-एक बात उसकी छाती में चुभ रही थी।
सुरंजन, रत्ना के घर की घंटी बजाता है। रत्ला ही दरवाजा खोलती है। उसे देखकर वह हैरान नहीं होती। मानो सुरंजन आने ही वाला था। वह सीधे उसे सोने वाले कमरे में ले जाती है, मानो उसके साथ कितने दिनों का रिश्ता है। रत्ना ने बंगाली ढंग की साड़ी पहनी हुई है। उसके माथे पर सिन्दूर की एक लाल बिन्दिया होने से ज्यादा अच्छा लगता। इसके साथ यदि माँग में सिन्दूर की एक पतली लकीर भी होती। सुरंजन को ढकोसले पसंद नहीं, लेकिन शंख की चूड़ियाँ, सिन्दूर, शंख की आवाज आदि बंगाली परम्परा उसे आकृष्ट करती है।
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