लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> लज्जा

लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :9789352291830

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

360 पाठक हैं

प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


उसके घर में पूजा-पाठ की बिल्कुल मनाही थी। लेकिन एक साथ मिलकर पूजा देखने जाना, आरती के साथ शौकिया नाच, पूजा-मंडप में गाने के साथ धुन मिलाकर गाना, नारियल के दो-चार लड्डू खाना, इन चीजों पर कभी आपत्ति नहीं थी।

रत्ना उसे बैठाकर चाय बनाने गयी है। 'कैसे हैं' के अलावा उसने एक भी शब्द नहीं बोला है। सुरंजन ने भी कुछ नहीं कहा। उसे कहने के लिए बातें ही नहीं मिलीं। वह प्यार करने आया है। आयरन किया हुआ शर्ट पहने बहुत दिनों बाद 'मेव' करके नहाकर बदन पर सुगंधित पाउडर छिड़कर आया है। बूढ़े माँ-बाप, बड़े भाई और रत्ना, इन्हीं लोगों को मिलाकर यह परिवार है। भाई की पत्नी और बेटे-बेटी भी हैं। उनके बच्चे इधर-उधर घूम रहे हैं। यह नया आदमी कौन है, यहाँ क्या चाहता है आदि-आदि सवालों का जवाब उन्हें नहीं मिलता, इसलिए वे दरवाजे से बहुत दूर भी नहीं जाते। सुरंजन सात वर्ष की एक लड़की को बुलाकर पूछता है, तुम्हारा नाम क्या है? वह जल्दी से जवाब देती है-मृत्तिका।

'वाह, बहुत सुन्दर नाम है तो! रत्ना तुम्हारी क्या लगती है?'

'बुआ।'

'अच्छा।'

'तुम शायद बुआ के दफ्तर में नौकरी करते हो?'

'नहीं, मैं कोई नौकरी-वौकरी नहीं करता। घूमता रहता हूँ।'

'घूमता रहता हूँ' शब्द मृत्तिका को बहुत पसंद आया। वह और कुछ कहे, इतने में रत्ना अन्दर आती है। हाथ में ट्रे है, ट्रे में चाय-बिस्कुट, नमकीन, दो तरह की मिठाई थी।

'क्या बात है, हिन्दुओं के घर में तो आजकल खाना-वाना मिलना सम्भव नहीं। वे लोग तो घर से बाहर ही नहीं जा पा रहे हैं। और आप तो यहाँ पर पूरी दुकान खोलकर बैठी हैं। तो सिलहट से कब आयीं?'

'सिलहट नहीं। मैं हबीबगंज, सुनामगंज, मौलवी बाजार गयी थी। मेरी आँखों के सामने हबीबगंज माधवपुर बाजार के तीन मंदिरों को तोड़ा गया।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book