जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'क्यों परवीन आपा डायेवोर्स ले रही है। इसलिए? कल आयी थी, कह रही थी उसका पति उसे रोज रात में पीटता है।'
'अब क्यों? मुसलमान से शादी करके, सुना है, आपा को शान्ति है? अरे नहीं रे, परवीन नहीं। मेरा मन तो कहीं और रमा है। इस बार मुसलमान नहीं, ताकि वह शादी से पहले रुआंसे स्वर में यह न कह पाये कि तुम धर्म बदल लो।' माया हँसने लगती है। काफी दिनों बाद माया हँस रही है। सुरंजन अचानक गंभीर होकर कहता है, 'पिताजी की हालत अब कैसी है? जल्दी ही ठीक हो जायेंगे?'
‘पहले से अब ठीक हैं। अच्छी तरह से बात कर पा रहे हैं। सहारा देकर बाथरूम में ले जाती हूँ। हल्का खाना भी खा रहे हैं। अच्छा याद आया, कल शाम को बेलाल भाई आये थे, तुम्हें पूछ रहे थे। पिताजी को देख गये। वे कह गये कि तुम बाहर मत जाना। बाहर निकलना अभी ठीक नहीं है।'
'ओह!'
सुरंजन अचानक एक झटके में खड़ा हो जाता है। माया कहती है, 'क्या बात है? कहीं जा रहे हो, लगता है!'
'मैं घर पर बैठे रहने वाला लड़का हूँ क्या?'
'तुम्हारे बाहर जाने पर माँ बहुत चिन्तित रहती है। भैया तुम मत जाओ। मुझे भी बहुत डर लगता है।'
'पुलक को रुपये लौटाने हैं। तुम्हारे पास कुछ पैसा होगा? तुम तो कमाने वाली लड़की हो। दो न, अपने फण्ड में से सिगरेट खरीदने के लिए कुछ पैसा!'
'ऊहूँ, सिगरेट के लिए मैं पैसा नहीं दूंगी। तुम बहुत जल्दी मर जाओ, यह मैं नहीं चाहती।'
माया ने कहा जरूर, लेकिन अपने भैया के लिए एक सौ का नोट ले आयी। बचपन में यही माया एक बार रो-रोकर अपने कपड़े तक भिगा चुकी है। उसे स्कूल की लड़कियाँ चिढ़ाती थीं-'हिन्दू-हिन्दू तुलसी पत्ता, हिन्दू खाता गाय का माथा।' माया घर लौटकर रो-रोकर सुरंजन से पूछी थी, 'क्या मैं हिन्दू हूँ? क्या मैं हिन्दू हूँ भैया?'
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