जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'हाँ।' सुरंजन ने कहा था।
'मैं और हिन्दू नहीं रहूँगी। वे सब मुझे हिन्दू कहकर चिढ़ाती हैं।'
सुधामय सुनकर बोले थे, 'तुम हिन्दू हो, किसने कहा? तुम मनुष्य हो। मनुष्य से बड़ा इस दुनिया में कोई नहीं।' सुधामय के प्रति श्रद्धा से सुरंजन का सिर झुक जाता है। उसने इतने आदमी देखे हैं पर सुधामय की तरह आदर्शवादी, तर्क-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य उसने बहुत कम देखे हैं। वह यदि किसी को ईश्वर मानेगा भी तो सुधामय को ही। इतने उदार, सहनशील, विवेकवादी मनुष्य इस जगत में कितने हैं?
चौंसठ में सुधामय ने खुद नारा लगाया था, 'पूर्वी पाकिस्तान डटकर खड़े होओ।' उस दिन का वह दंगा बढ़ नहीं पाया। शेख मुजीब ने आकर रोक दिया था। अयूब सरकार के विरुद्ध आन्दोलन बढ़ न पाये, इसी कारण सरकार ने खुद ही दंगा करवाया था। सरकार विरोधी आन्दोलन के जुर्म में छात्र और राजनीतिक नेताओं के विरुद्ध फौजदारी मामले दायर किये गये। सुधामय उस मामले के एक मुजरिम थे। सुधामय अतीत को लेकर सोचना नहीं चाहते थे। फिर भी अतीत उनके मन पर नग्न होकर खड़ा हो जाता है। 'देश-देश' करके देश का क्या हुआ? कितना कल्याण हुआ? पचहत्तर के बाद से यह देश साम्प्रदायिक कट्टरपंथियों की मुट्ठी में चला जा रहा है। सब कुछ जान-बूझकर भी लोग अचेतन स्थिर हैं। क्या ये जन्म से चेतनहीन हैं? इनके शरीर में क्या वह खून नहीं बह रहा है जो 1952 में बांग्ला राष्ट्रभाषा की माँग को लेकर रास्ते में उतरा, 1969 में जनउत्थान का खून, 1971 में 30 लाख लोगों का खून? वह गर्मजोशी कहाँ? जिसकी उत्तेजना से अभिभूत होकर सुधामय आन्दोलन में कूद पड़ते थे? कहाँ हैं अब वे खौलते हुए रक्त वाले लड़के? क्यों वे अब साँप की तरह शीतल हैं? क्यों धर्मनिरपेक्ष देश में साम्प्रदायिक कट्टरपंथी अपना खूटा गाड़े हुए हैं? क्या कोई नहीं समझ पा रहा है कि कितना भयंकर समय आ रहा है? सुधामय अपनी पूरी ताकत लगाकर बिस्तर से उठना चाहते हैं। लेकिन नहीं उठ सकते। उनका चेहरा वेदना, असमर्थता, आक्रोश से नीला पड़ जाता है।
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