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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :9789352291830

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन को नींद नहीं आती उसने 'एकता' पत्रिका में दो वर्षों तक काम किया था। वह रिपोर्टर के रूप में काम करता था। इस सिलसिले में उसे देश के कोने-कोने तक भागना पड़ता था। इस तरह की निपीड़ित खबरें उसके थैले में ही पड़ी रह जाती थीं। कुछ छपतीं और कुछ नहीं छपती थीं। संपादक कहते, 'जानते हो सुरंजन, यह दुर्बल के ऊपर सबल का अत्याचार है। यदि तुम अमीर हो तो तुम हिन्दू हो या मुसलमान, यह फैक्टर नहीं है। पूँजीवादी समाज व्यवस्था का तो यही नियम है। जाकर देखो, दरिद्र मुसलमानों की हालत भी ऐसी ही है। धनी व्यक्ति चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, दरिद्र का शोषण कर रहा है।'

जाड़ा बहुत जमकर पड़ रहा है न? सुरंजन बदन से रजाई हटाता है। बहुत पहले सुबह हो चुकी है। बिस्तर से उठने का उसका मन नहीं होता। कल रात वह सारा शहर घूमता रहा। किसी के घर जाने की इच्छा नहीं हुई। किसी से बात करने का मन नहीं हो रहा था। वह अकेला चलता रहा। उसने यह भी सोचा कि घर पर माँ-बाप चिन्ता कर रहे होंगे। फिर भी उसकी लौटने की इच्छा नहीं हुई। डर से सहमी हुई किरणमयी का चेहरा देखने से वह खुद भी डर रहा था। सुधामय भी भावहीन आँखों से देखते रहे। सुरंजन की इच्छा हो रही थी कि वह कहीं बैठकर शराब पीये। ताकि वह शराब पीते-पीते माया की मायावी आँखों को भूल सके। जिन आँखों में जगह-जगह पर भय रूपी नीलाभ बादल लिये वह 'भैया-भैया' कहकर सुरंजन को पुकार रही थी। देखते-ही-देखते वह धड़धड़ाकर बड़ी हो गई। अभी उस दिन की ही तो बात है। वह छोटी-सी गुड़िया भैया का हाथ पकड़े नदी देखने जाती थी। वह श्यामली सुन्दर लड़की दुर्गापूजा आते ही फ्रॉक खरीद देने की मांग करती थी। सुरंजन कहता, 'पूजा-वूजा की बात छोड़ दो! मिट्टी की प्रतिमा बनाकर असभ्य लोग नाचेंगे और तुम नया कपड़ा पहनोगी, छिः। तुम्हें मैं आदमी नहीं बना सका।'

माया लाड़ भरे स्वर में कहती, 'भैया, पूजा देखने जाऊँगी। ले जाओगे?' सुरंजन धमकाता। कहता, ‘आदमी बनो, आदमी! हिन्दू मत बनो।'

माया खिलखिलाकर हँसती। कहती, 'क्यों, हिन्दू लोग आदमी नहीं होते!' 1971 में माया को ‘फरीदा' कहकर पुकारा जाता था। 1972 में भी दंगा-फसाद समाप्त हो गया था, सुरंजन के मुँह से कभी-कभी ‘फरीदा' निकल जाता था। माया इससे गाल फुला लेती थी। उसका गुस्सा उतारने के लिए सुरंजन मोड़ की दुकान से उसे चॉकलेट खरीद देता था। चॉकलेट पाकर वह और खुश हो जाती थी। जब वह चॉकलेट गाल में रखती थी, तब उसकी मायावी आँखें खुशी से चमक उठती थीं। वह बचपन में मुसलमान सहेलियों को रंगबिरंगे गुब्बारे खरीदते देखकर गुब्बारे के लिए भी जिद करती। इतना ही नहीं वह पटाखे फोड़ेगी, फुलझड़ी जलायेगी, इसके लिए किरणमयी का आँचल पकड़कर घूमती रहती थी। और कहती, 'आज नादिरा के घर पुलाव और मांस पकेगा, मैं भी पुलाव खाऊँगी।' किरणमयी भी पुलाव पकाती थी।

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