जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
माया परसों सुबह गयी है। आज तक उसकी कोई खबर नहीं मिली। उसे लेकर माँ पिताजी को कोई दुश्चिंता भी नहीं है। मुसलमान के घर में कम-से-कम जिन्दा तो रहेगी। इतनी सी उम्र में वह दो-दो ट्यूशन करती है। 'इडेन कॉलेज' में पढ़ती है, और अपनी पढ़ाई-लिखाई का खर्च खुद ही चलाती है। सिर्फ सुरंजन को ही हाथ पसारना पड़ता है। उससे नौकरी-चाकरी कुछ भी नहीं हो पायी। फिजिक्स में मास्टर डिग्री लेकर बैठा हुआ है। शुरू-शुरू में नौकरी करने की इच्छा थी। कई जगह इंटरव्यू भी दिया था। वह विश्वविद्यालय का मेधावी छात्र था। लेकिन जो लड़के उससे पढ़ाई में मदद लेने आ जाया करते थे, वही फाइनल परीक्षा में उससे ज्यादा नम्बर लेकर पास हुए। नौकरी के मामले में भी वही हुआ। उससे कम नम्बर पाने वाले छात्र को शिक्षक की नौकरी मिली लेकिन उसे नहीं मिली। उसने कई इण्टरव्यू दिये। इण्टरव्यू पर उसे कहीं पछाड़ नहीं पाये। लेकिन जो लड़के बोर्ड से निकलकर दुखी होकर कहते थे कि वाइबा अच्छा नहीं हुआ, सुरंजन देखता कि अंततः 'अप्वॉयंटमेंट लेटर' उन्हें ही मिलता था। इस पर सुरजन हैरान होता था। कुछेक बोर्ड में बात उठी के सुरंजन अदब नहीं जानता है, परीक्षकों को सलाम नहीं करता है। दरअसल, 'अस्सलाम वालेकुम', 'आदाब' या 'नमस्कार' से ही केवल श्रद्धा ज्ञापित की जा सकती है, सुरंजन इस बात को नहीं मानता है। जो लड़का ‘अस्सलाम वालेकुम' कहकर गद्गद भाव से बात करता है, वही बोर्ड से निकलकर परीक्षकों को 'सुअर का बच्चा' कहकर गाली देता है। उसी लड़के को लोग सभ्य मानते हैं और वही इण्टरव्यू में चुना भी जाता है। पर जिस सुरंजन ने 'अस्सलाम वालेकुम' नहीं कहा, लेकिन कभी शिक्षकों को गाली नहीं दी। उसी ने लोगों से 'बेअदब' होने का इनाम पाया है। पता नहीं, इसी वजह से या फिर वह हिन्दू है, इसलिए उसे कोई सरकारी नौकरी नहीं मिली। गैर-सरकारी प्रतिष्ठान में उसे एक नौकरी मिली थी परन्तु तीन महीने नौकरी करने के बाद उसे और अच्छा नहीं लगा। उसने वह नौकरी छोड़ दी। इधर माया ठीक है। उसने हालात से समझौता कर लिया है। दो ट्यूशन पढ़ाती ही है। और सुनने में आया है कि एक एन. जी. ओ. में नौकरी भी ठीक हो गयी है। सुरंजन को शक होता है कि ये सारी सुविधाएँ शायद जहाँगीर नाम के लड़के ने दिलाई होंगी। क्या माया अंततः कृतज्ञ होकर उस लड़के से विवाह कर लेगी? आशंका के तिनकों से उसके मन में बबूल पक्षी के घोंसले की तरह घोंसला बनने लगा। एक प्याला चाय लिये किरणमयी सामने आकर खड़ी हो गयी। आँखों के किनारे सूजन आ गयी है। सुरंजन समझ गया कि वह रातभर सो नहीं पायी। वह भी कहाँ सो सका? लेकिन इस बात को उसने जाहिर नहीं होने दिया। जम्हाई लेते हुए कहा, 'इतना दिन चढ़ आया, पता ही नहीं चला।' मानो गहरी नींद में होने के कारण ही उसे पता नहीं चल पाया, वरना अगर उसे सुवह होने का आभास होता तो वह अन्य दिनों की तरह आज भी उठकर टहलने गया होता। जॉगिंग करता। किरणमयी चाय का प्याला लिये खड़ी रहती है। टेबिल पर रखकर जा भी सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। सुरंजन को लगा कि किरणमयी कुछ बोलना चाहती है। लेकिन वह कुछ नहीं कहती। मानो वह बेटे के चाय का प्याला लेने के ही इन्तजार में खड़ी है। दो व्यक्तियों के बीच कितने योजन का फर्क होने पर कोई व्यक्ति इस तरह निर्वाक रह सकता है, सुरंजन इस बात को समझता है। वह खुद ही बात छेड़ता है, 'क्या माया आज भी नहीं लौटी?'
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