जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'क्या तुम कल सद्भावना जुलूस में गये थे सुरंजन? कितने लोग थे उस जुलूस में?'
'पता नहीं!'
'जमातियों को छोड़कर तो सभी दल रास्ते में इकट्ठा हुए थे। है न?'
'पता नहीं!'
‘सरकार तो अवश्य ही पुलिस प्रोटेक्शन दे रही है?'
'पता नहीं!'
'शांखारी बाजार इलाके में इस छोर से उस छोर तक पुलिस खड़ी है। तुमने देखा है?'
'पता नहीं!'
'हिन्दू लोगों ने तो दुकाने भी खोली हैं!'
'पता नहीं!'
'भोला की हालत क्या बहुत खराब है? सुरंजन, क्या सचमुच बहुत खराब हालत है? या इस बात का प्रचार ज्यादा हो रहा है?'
'पता नहीं!'
'गौतम को शायद जाती दुश्मनी के कारण मारा-पीटा है। सुना है, वह लड़का गांजा-वांजा भी पीता था?'
'पता नहीं!'
सुरंजन की उदासीनता सुधामय के जोश को दमित कर देती है। वे फिर से पत्रिका का पन्ना आँखों के सामने खोल लेते हैं। आहत स्वर में कहते हैं, 'शायद तुम आजकल पत्र-पत्रिकाएँ नहीं पढ़ते हो ना?'
'पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर क्या होगा?'
'चारों तरफ किस तरह प्रतिरोध हो रहा है, प्रतिवाद हो रहा है। क्या जमातियों की इतनी शक्ति होगी जो पुलिस के घेरे को तोड़कर मंदिर में घुस पायेगी?'
'मंदिर से आप क्या करेंगे? क्या अन्तिम उम्र में पूजा करने की इच्छा जाग रही है? अगर मन्दिरों को धूल में मिला दें तो क्या आपको कोई असुविधा होगी? जितने भी मन्दिर हैं सबको तोड़ डालें न! मैं तो खुश होऊँगा।'
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