जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
जमीन पर पड़ा पुलक का छह वर्षीय लड़का सुवक-सुवक कर रो रहा है। पुलक से पूछने पर उसने बताया कि बगल के फ्लैट के वच्चे जिनके साथ वह खेलता था, आज से अलक को खेल में शामिल नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा है कि 'हम तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे। हुजूर ने हिन्दुओं के साथ खेलने से मना किया है।'
'हुजूर मतलव?' सुरंजन ने पूछा। 'हुजूर यानी मौलवी! जो सुबह उन लोगों को अरवी पढ़ाने आता है।'
'बगल वाले फ्लैट में अनीस अहमद रहते हैं न? वे तो कम्युनिस्ट हैं। वे भी अपने बच्चे को हुजूर से अरबी पढ़ाते हैं?'
'हाँ!' पुलक ने कहा।
सुरंजन ने फिर से आँखें बन्द कर लीं। उसने चुपचाप खुद को अलक समझकर अनुभव करना चाहा। अलक का शरीर रह-रहकर कॉप रहा था। रुलाई उसके सीने में ही थी। मानो सुरंजन को भी कोई खेल में शामिल नहीं कर रहा था। इतने दिनों तक जिनके साथ खेलता रहा था, जिनके साथ सोचा था कि खेलता रहेगा, वे खेल में उसे नहीं शामिल कर रहे हैं। हुजूरों ने कहा है, हिन्दुओं को खेल में न लो। सुरंजन को याद आया, माया एक बार रोते-रोते घर लौटी थी। वोली थी, 'मुझे टीचर कक्षा से बाहर निकाल देती है।'
दरअसल, कक्षा की पढ़ाई में धर्म एक आवश्यक विषय था। इस्लामियत की कक्षा से उसे बाहर निकाल दिया जाता था। वह उस कक्षा की अकेली हिन्दू लड़की थी जो बरामदे की रेलिंग से सटकर खड़ी रहती थी। बड़ी ही अकेली निःसंग। वह अपने आपको बड़ी ही कटी हुई महसूस करती थी।
सुधामय ने पूछा था, 'क्यों? क्यों तुम्हें कक्षा से बाहर निकाल देते हैं?' 'सभी क्लास करते हैं। मुझे नहीं रखते, मैं हिन्दू हूँ न, इसलिए।'
सुधामय माया को छाती में समेट लिए थे, अपमान और वेदना से वे काफी देर तक कुछ कह नहीं पाये थे। उसी दिन स्कूल के धर्म-टीचर के घर जाकर उन्होंने कहा था, 'मेरी लड़की को क्लास से बाहर मत भेजिएगा। उसे कभी समझने मत दीजिएगा कि वह अन्य बच्चों से अलग कोई है।' माया की समस्या का समाधान तो हुआ लेकिन उसे 'अलिफ-बे-ते-से' के मोह ने जकड़ लिया। घर पर खेलते हुए वह अपने मन में दुहराती रहती-'आलहाम दुलिल्लाह हि बारिवल आल आमिन' और 'रहमानिर रहीम।' यह सुनकर किरणमयी सुधामय से कहती, 'यह सब क्या कर रही है? अपना जात-धर्म त्याग कर अब स्कूल में पढ़ना होगा क्या?' इससे सुधामय भी चिन्तित हुए। बेटी की मानसिक स्थिति को ठीक रखने में यदि वह इस्लाम धर्म में आसक्त हो जाये तो इससे एक और समस्या आयेगी। इस घटना के एक सप्ताह बाद स्कूल के हेड मास्टर के पास उन्होंने एक आवेदन-पत्र भेजा कि धर्म व्यक्तिगत विश्वास की भावना है, इसे स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल करना उचित नहीं है। इसके अलावा यदि मैं अपने बच्चे को किसी धर्म से शिक्षित करना जरूरी नहीं समझता हूँ तो स्कूल अधीक्षक कभी उसे जबरदस्ती धर्म सिखाने का दायित्व नहीं ले सकते, और धर्म नामक विषय के बदले मनीषियों की वाणी, महापुरुषों की जीवनी आदि के विषय में सभी सम्प्रदायों के पढ़ने योग्य एक विषय की रचना की जा सकती है। इससे अल्पसंख्यकों में हीनता की भावना दूर होगी। लेकिन सुधामय के उस आवेदन का स्कूल अधीक्षक ने कोई जवाब नहीं दिया। जैसा चलता था, वैसा ही चलता रहा।
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