जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
नीला चाय लेकर आयी। चाय पीते-पीते माया की बात छिड़ती है।
‘माया को लेकर मुझे बहुत चिन्ता होती है। कहीं वह अचानक जहाँगीर से शादी न कर ले!'
'सुरंजन दा, अब भी समय है, उसे लौटा लीजिए। विपत्ति के समय इन्सान झट से निर्णय ले लेता है।'
देखता हूँ, लौटते वक्त पारुल के घर से उसे लेता जाऊँगा। माया बर्बाद होती जा रही है। जीने की प्रचण्ड लालसा में वह फरीदा बेगम जैसा कुछ हो जायेगी। स्वार्थी!'
नीला की आँखों में नीली दुश्चिन्ता खेल रही थी। अलक रोते-रोते सो गया। उसके गालों पर अब भी आँसू के दाग हैं। पुलक टहलता रहता है। उसकी बेचैनी सुरंजन को भी स्पर्श करती है। चाय उसी तरह पड़ी-पड़ी ठंडी हो जाती है। सुरंजन की चाय पीने की इच्छा थी, लेकिन पता नहीं वह इच्छा कहाँ गायब हो गयी। वह आँखें मूंद कर सोचना चाहता है-यह देश उसका है, उसके बाप का, उसके दादा का, दादा के भी दादा का है यह देश। फिर भी वह क्यों कटा हुआ महसूस कर रहा है। क्यों उसे लगता है कि इस देश पर उसका अधिकार नहीं है!
उसके चलने का, कहने का, कुछ भी पहनने का, सोचने का अधिकार नहीं है, उसे सहमा हुआ रहना पड़ता है, छिपे रहना पड़ता है। वह जब मन आये तब निकल नहीं सकता। कुछ भी नहीं कर सकता। किसी व्यक्ति के गले में फंदा डालने पर जैसा लगता है, सुरंजन को भी वैसा ही लग रहा है। वह खुद ही अपने दोनों हाथों से अपना गला दबाता है। उसकी साँस रुकने-रुकने को हुई कि वह चीख पड़ा, 'मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, पुलक!'
पुलक के माथे पर बूंद-बूंद पसीना जमा है। इतनी ठंड में भी पसीना क्यों आता है? सुरंजन ने अपने माथे पर हाथ रखा। वह हैरान हुआ कि उसके भी ललाट पर पसीना जम गया है। क्या डर से? कोई भी उनको घर के अन्दर पीट नहीं रहा है। हत्या नहीं कर रहा है। फिर भी क्यों डर समाया है? क्यों दिल की धड़कन तेज है?
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