जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन ने दाँत पीसते हुए सोफे का हैंडल कस कर भींचा। पुलक भी हतप्रभ होकर बैठा रहा। नीला भात-दाल-सब्जी गरम करके टेबुल पर ले आयी। सहानुभूतिपूर्ण स्वर में पूछा, 'सुरंजन दा, दिन-भर कुछ नहीं खाये?'
सुरंजन फीकेपन के साथ मुस्कराया। बोला, 'मेरा और खाना! मेरे खाने की । किसे परवाह है, बोलो।'
'शादी-ब्याह कर लीजिए।'
'शादी?' सुरंजन के गले में चावल अटका जा रहा था, 'मुझसे कौन शादी करेगा?'
'उस परवीन के कारण आपका मन शादी से उचट गया, यह तो ठीक नहीं
है।'
'नहीं, नहीं। उस कारण क्यों होगा? दरअसल, शादी करनी होगी, मैं इतने दिनों तक भूल ही गया था।'
इतने दुखों के बीच भी नीला और सुरंजन हँसते हैं।
सुरंजन को खाने में उतनी रुचि नहीं है। फिर भी वह भूख मिटाने के लिए खाता है।
'पुलक, तुम मुझे कुछ रुपये उधार दे सकोगे?' खाते-खाते ही उसने पूछा। 'कितना रुपया?'
'जितना दे सको। घर पर कोई मुझसे नहीं बता रहा है रुपये-पैसे की जरूरत है या नहीं। लेकिन मुझे मालूम है, माँ का हाथ खाली हो गया है।'
'वह तो मैं दे दूंगा। लेकिन देश की खबर जानते हो? भोला, चट्टग्राम, सिलहट की? काक्स बाजार, फीरोजपुर की?'
'यही तो कहोगे न, सभी मंदिरों को तोड़ दिया गया है, हिन्दुओं के घरों को लूटा जा रहा है, जला दे रहे हैं, पुरुषों को पीट रहे हैं, स्त्रियों के साथ बलात्कार कर रहे हैं, इसके अलावा कुछ हो तो बोलो।
'यह सब तुम्हें स्वाभाविक लग रहा है?'
'बिल्कुल स्वाभाविक है। क्या आशा करते हो तुम इस देश से? पीठ बिछाये बैठे रहोगे और उनके मुक्का -बूंसा मारने पर गुस्सा करोगे, यह तो ठीक नहीं है।'
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