जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
पुलक दीवार से पीठ टेक कर खड़ा था। सुरंजन दरवाजे की तरफ बढ़ा। किरणमयी ने एक बार मयमनसिंह के रईसउद्दीन के पास जाने के लिए कहा था, इतने कम रुपये में मकान खरीदा था, यदि इस समय कुछ सहायता ही कर दें। सुरंजन किसी से रुपया उधार नहीं लेगा। परचून की दुकान में बकाया हो जाता है तो महीने के अंत में जाकर उसे दे देता है। पुलक से वह इतनी सहजता से पैसे माँग सका है। कभी पुलक को उसने काफी दिया है, शायद इसीलिए। यह भी हो सकता है कि पुलक हिन्दू लड़का है। वह जितना अल्पसंख्यकों के दुःख को समझ सकता है उतना और कोई नहीं समझ सकता। दूसरों से माँगने पर भी दे तो देंगे लेकिन शायद मन से नहीं। सुरंजन ने तय किया है कि इस बार वह किसी मुसलमान के आगे हाथ नहीं पसारेगा। घर में उसे कोई किसी भी प्रकार का दायित्व नहीं सौंप रहा है। सोच रहे होंगे देश भक्त बेटा है, देश-प्रेम में दिन-रात एक किया, इसे बेमतलब तंग करने से क्या लाभ। इन रुपयों को ले जाकर वह किरणमयी के हाथों में देगा। पता नहीं वह किस तरह से परिवार की पतवार संभाले हुए है। किसी से उसे कोई शिकायत नहीं है। इस निकम्मे बेटे से भी नहीं। इतनी दरिद्रता झेली है लेकिन कभी कड़वी नहीं हुई।
पुलक के घर से निकलकर वह तेजी से टिकाटुली की तरफ चलने लगा। अचानक उसे लगा, आदमी के जिन्दा रहने से क्या फायदा। यह जो सुधामय कराहते हुए जिन्दा हैं, दूसरे लोग पाखाना-पेशाब करवा रहे हैं, खिला-पिला रहे हैं, क्या फायदा उनको इस तरह से जिन्दा रहने से? सुरंजन भी क्यों जिन्दा है? एक बार तो सोचा, पैसा तो जेब में ही है, कुछ ‘एम्पुल पेथिडीन' खरीदकर नस में 'पुस' करने से कैसा रहेगा। मर जाने की कल्पना का वह मजा लेने लगता है। मान लिया जाए, वह मरकर बिस्तर पर पड़ा है। घर में किसी को पता नहीं चलेगा, सोचेंगे लड़का सोया हुआ है, उसे तंग करना ठीक नहीं होगा। फिर एक माया बुलाने आयेगी, भैया उठो पिताजी के लिए हमारे लिए कोई व्यवस्था करो। भैया कोई जवाब नहीं देगा। वह ऐसा सोचते हुए आ ही रहा था कि विजय नगर के मोड़ पर जुलूस दिखाई दिया-साम्प्रदायिक सद्भावना का जुलूस। 'हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई' का नारा। सुरंजन के होंठों पर व्यंग्य भरी मुस्कराहट दौड़ गई।
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