कविता संग्रह >> परशुराम की प्रतीक्षा परशुराम की प्रतीक्षारामधारी सिंह दिनकर
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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...
(4)
घटा को फाड़ व्योम-बीच गूँजती दहाड़ है,
ज़मीन डोलती है और डोलता पहाड़ है ;
भुजंग दिग्गजों से, कूर्मराज त्रस्त कोल से,
धरा उछल-उछल के बात पूछती खगोल से ;
कि क्या हुआ है सृष्टि को? न एक अंग शान्त है ;
प्रकोप रुद्र का कि कल्पनाश है, युगान्त है?
जवानियों की धूम-सी मचा रहीं जवानियाँ।
(5)
समस्त सूर्य-लोक एक हाथ में लिये हुए,
दबा के एक पाँव चन्द्र-भाल पे दिये हुए,
खगोल में धुआँ बिखेरती प्रतप्त-श्वास से,
भविष्य को पुकारती हुई प्रचण्ड ह्रास से ;
उछाल देव-लोक को मही से तोलती हुई,
मनुष्य के प्रताप का रहस्य खोलती हुई;
विराट रूप विश्व को दिखा रहीं जवानियाँ।
(6)
मही प्रदीप्त है, दिशा-दिगन्त लाल-लाल है,
व’ देख लो, जवानियों की जल रही मशाल है ;
व’ गिर रहे हैं आग में पहाड़ टूट-टूट के,
व’ आसमाँ से आ रहे हैं रत्न छूट-छूट के,
उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो,
बढ़ो, बढ़ो, कि आग में अनीतियों को झोंक दो।
परम्परा की होलिका जला रही जवानियाँ।
(7)
व’ देख लो, खड़ी है कौन तोप के निशान पर;
व’ देख लो, अड़ी है कौन जिन्दगी की आन पर।
व’ कौन थी, जो कूद के अभी गिरी है आग में?
लहू बहा कि तेल आ गिरा नया चिराग में?
अहा व’ अश्रु था कि प्रेम का दबा उफान था?
हँसी थी या कि चित्र में सजीव, मौन गान था?
अलभ्य भेंट काल को चढ़ा रही जवानियाँ।
(8)
अहा, कि एक रात चाँदनी-भरी सुहावनी,
अहा, कि एक बात प्रेम की बड़ी लुभावनी ;
अहा, कि एक याद दूब-सी मरुप्रदेश में,
अहा, कि एक चाँद जो छिपा कराल वेश में;
अहा, पुकार कर्म की ; अहा, री पीर मर्म की,
अहा, कि प्रीति भेंट जा चढ़ी कठोर धर्म की।
अहा, कि आँसुओं में मुस्करा रही जवानियाँ।
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